Friday, October 15, 2021

गंगा दशहरा

[15/10, 09:43] शिवेंद्र २: ईसवी सन् 2006 का फरवरी महीना अवसर था 'सवाई मानसिंह चिकित्सा महाविद्यालय', जयपुर के भव्य सभागार में 'धर्म-संस्कृति संगम' के आयोजन का। यहाँ दुनिया के 41 देशों के 257 प्रतिनिधि जमा हुए थे। ये दुनिया भर के ऐसे लोग थे जो यह मानते थे कि उनकी वो संस्कृतियाँ जिन्हें इस्लाम और ईसाईयत ने नष्ट कर दिया की आदिभूमि भारत है और मूल में हिन्दू धर्म है। इस सम्मेलन में आने वाले का मजहब चाहे जो भी रहा हो पर सबके अंदर सवाल एक ही था कि ठीक है हम आज मुस्लिम हैं या ईसाई मताबलंबी हैं पर उसके पहले क्या ? रसूल साहब 1400 और ईसा मसीह 2000 साल पहले आये पर मानवजाति और मानव सभ्यता तो उससे काफी पहले से है फिर उसके पहले हम क्या थे? हमारी पहचान क्या थी? हमारी विशेषताएंँ और मान्यताएंँ क्या थी? हमारे पूर्वज जिन पूजा-पद्धतियों को, जिन मान्यताओं और विचारों को मानते थे क्या वो खोखले और मूर्खतापूर्ण थे? क्या करोड़ों वर्ष का उनका अर्जित ज्ञान कुफ्र और अविश्वास था? अज्ञानता थी? क्या उनकी रचनाएँ जला देने लायक थी? 5 से 10 फरवरी तक चले इस 'महासंगम' में दुनिया के अलग-अलग भागों से आये ऐसे विद्वानों ने इन विषयों पर अपने विचार रखे थे, 42 चर्चा सत्र चले थे और 125 से अधिक शोधपत्र प्रस्तुत किये गये थे। कार्यक्रम में आये अफ्रीकी देश के एक विद्वान् ईसाई प्रोफेसर ने एक दिन एक बयान देते हुए कह दिया कि दुनिया का सबसे बड़े चोर ये मिशनरीज हैं। उनका यह कहना था कि मीडिया में हंगामा मच गया। चूँकि कार्यक्रम में आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक के. एस. सुदर्शन भी मौजूद थे, इसलिये मीडिया ने तुरंत यह न्यूज़ चलानी शुरू कर दी कि संघ के लोगों के बहकाने पर या उन्हें खुश करने के लिये यह अनर्गल बात कही गई है। विवाद बढ़ने पर जबाब देने के लिये वही ईसाई प्रोफेसर सामने आये और बड़े संयमित स्वर में उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए कहना शुरू किया :- "मैं 'अफ्रीका' के एक बहुत ही निर्धन देश के एक 'आदिवासी' परिवार में पैदा हुआ था। हमारे यहाँ काफी अभाव थे पर मेरे माता-पिता की ये चाहत थी कि मैं पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनूँ और इसलिये जब मैं पांँच साल का हुआ तब अपनी हैसियत के अनुसार उन्होंने मेरा दाखिला वहां के एक सामान्य स्कूल में करा दिया। कुछ दिन बाद वहांँ मिशनरियों का आगमन हुआ और उन्होंने हमारी बस्ती के पास एक बड़ा भव्य स्कूल खोला। एक दिन मेरे माता-पिता ने मेरा हाथ पकड़ा और उस स्कूल के प्रबंधक के पास उस स्कूल में मेरे दाखिले के संबंध में बात करने गये। वे जो बातें कर रहें थे वे तो मेरी समझ में ज्यादा नहीं आया पर मैं इतना जरूर समझ गया कि ये लोग मेरा नाम बदलने की बात कर रहे हैं। यह समझते ही मैं अपना हाथ छुड़ाकर वहांँ से भागा। मेरे माँ-बाप दौड़ते हुए पीछे आये और मुझे पकड़ा। मैं एक ही बात लगातार कह रहा था कि मुझे अपना नाम नहीं बदलना है। मेरी माँ ने अपने दोनों हाथों से मेरा चेहरा थामा और कहा :- देखो, मेरे बच्चे ! अगर हम वैसा नहीं करेंगे जैसा वे कह रहे थे तो हम न तो अपनी हालात सुधार सकेंगे और न ही तुम्हें अच्छी शिक्षा दिला सकेंगे और उनके महंँगे स्कूल की फीस भरने का सामर्थ्य हममें नहीं है। अपने माँ-बाप की मजबूरी ने मेरे जिद को मात दे दी। हम वापस उस स्कूल प्रबंधक के पास पहुंँचे और उसकी हर वह शर्त मानी जो वे कहते गये। हमारे नाम बदले गये। हमारे कपड़े उतार दिये गये और हमें "जीवन-जल" से अभिषिक्त किया गया। "पवित्र' बाईबल और क्रॉस थमाया गया। मैंने पहले चर्च के स्कूल और फिर कॉलेज में पढ़ाई की और आज प्रोफ़ेसर हूँ। दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में मेरी लिखी किताबें पढ़ाई जाती हैं। दुनिया भर से मुझे लेक्चर देने के लिये आमंत्रित किया जाता है। अखबारों और टीवी में मेरे इंटरव्यू आते हैं पर... (ये कहते-कहते उस अफ्रीकी प्रोफेसर का गला रुंँध गया) ......पर आज दुनिया मुझे उस नाम से नहीं जानती है जो नाम मेरे पैदा होने पर मेरी दादी ने मुझे दिया था, मिशनरियों ने मुझसे मेरा वह नाम छीन लिया। अब दुनिया मुझे उस नाम से जानती है जो नाम क्रॉस लगाये मिशनरी ने मेरे माँ-बाप की मजबूरी की बोली लगाकर दी थी। आज दुनिया यह नहीं जानती कि मैं उस कबीले का हूँ जिसकी एक समृद्ध संस्कृति थी, अपनी पूजा-पद्धति थी, अपने मन्त्रों के बोल थे, जिसकी अपनी संस्कार-पद्धतियाँ थी, क्योंकि मिशनरीज ने मेरे उस कबीले को उसकी तमाम विशेषताओं के साथ निगल लिया। इतना कहने के बाद वो प्रोफेसर मीडिया से मुखातिब हुए और पूछा:- "जिसने मुझसे मेरा नाम, मेरी पहचान, मेरी जुबान सब छीन ली, दुनिया में उससे बड़ा चोर कौन होगा? मानवजाति की भलाई का काम, किसी को शिक्षित और संस्कारित करने का काम, सेवा के काम में मतान्तरण कहाँ से आता है ? क्या हक़ था उनको मुझसे मेरी वह बोली छीन लेने का जिसमें मैंने पहली बार अपनी माँ को पुकारा था ? क्या हक़ था उनको हमारी उन परम्पराओं को पैगन रीति कहकर ख़ारिज कर देने का जिसके द्वारा मेरी बूढ़ी दादी ने मेरी बलाएँ ली थी और क्या हक़ था उनको उन देवी-देवताओं और पूजा-स्थानों को गंदगी और पाप कहने का जिनसे माँगी गई मन्नतों ने मेरी माँ का कोख भरा था ? "हाले लुईया" केवल शाब्दिक जयकारे भर नहीं है। बल्कि ये आपकी आईडेंटिटी, आपके अस्तित्व, आपके वैचारिक स्वातंत्र्य, आपकी संस्कृति, आपकी परंपरा, आपकी भाषा-बोली, आपके रीति-रिवाज, आपकी नैतिकता, आपकी राष्ट्रीयता, आपकी मानवता सबको लील लेता है और आप अंत में आप कुछ नहीं बचते। 20 साल बाद के पंजाब की तस्वीर की कल्पना मुझे डराती है पर अफसोस मोदी और हिंदुओं से घृणा में अंधे उस पंथ के पैरोकार जब तक इसे देखेंगे तब तक कुछ भी शेष नहीं रहेगा। [15/10, 10:04] शिवेंद्र २: विजयादशमी का सही अर्थ बचपन से मुझे बताया गया है कि दशहरे के दिन हम प्रभु श्रीराम के रावण को पराभूत कर अयोध्या लौटने के आनंददायी पर्व को हर वर्ष मनाते हैं। यही आम धारणा है। आज यह खयाल आया कि क्यों न इसके बारे में कुछ अलग विचार किये जायें? हम सभी के भीतर भी तो दुर्गुणरूपी रावण और सद्गुणस्वरूप श्रीराम का द्वंद्व चलते रहता है। भले- बुरे के संघर्ष में भले की विजय का भी तो यही पर्व है। मनुस्मृति में से उद्धरित ये तीन श्लोक मुझे प्रेरणा देते हैं। काया-वाचा-मने इन दस पापों से मुक्ति पाना ही सच्चे अर्थ में विजयादशमी मनाना होगा। अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः । परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् ॥ पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः । असम्बद्धप्रलापश्च वाङ्ममयं स्याच्चतुर्विधम् ॥ परद्रव्येष्वाभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् । वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ॥ ( मनुः) शरीर से किये तीन, वाचा से किये चार और मन से किये तीन पापों का त्याग करना उचित होगा यही इन श्लोकोंमें कहा गया है। तीन शारीरिक पाप: अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः । परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् ॥  जो वस्तु/व्यक्ति अपनी नहीं है या किसीने उसे हमें दान न किया हो, ऐसी कोई चीज या व्यक्ति की अभिलाषा रखना, बेवजह हिंसा करना या परस्त्री को पाने की इच्छा रखकर उसकी कोशिश करना ये तीन शारीरिक पाप हैं। वाचा के चार पाप/दोष: पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः ।असम्बद्धप्रलापश्च वाङ्ममयं स्याच्चतुर्विधम् ॥  औरों के बारे में सदैव झूठ फैलाना और कठोर शब्दों का प्रयोग करना, और सदैव असम्बद्ध तथा अव्याहत बातें करते रहना यही चार वाचा से घटनेवाले चार पाप हैं। मन से होनेवाले तीन पाप: परद्रव्येष्वाभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् ।वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ॥ ( मनुः)  किसी और के द्रव्य की अभिलाषा रखना, औरों को क्षति पहुँचाने की कामना/विचार करना, और सदैव झूठी चीजों में स्वारस्य रखना, जैसे अफवाहें फैलाना यही मन के तीन पाप हैं। रावण को इन्हीं दस पापों के लिये दंडित किया गया। अजेय एवम् अमर होने के वर मिलने पर रावण अहंकारी और उन्मत्त हो गया। इसी वजह से वह औरों की चीज वस्तु तथा औरतों का हरण करने में व्यस्त हो गया। उसने सभी के साथ अकारण युद्ध किया, तीन लोकों पर उसने अपने शक्ति का अकारण प्रदर्शन किया और सत्ता स्थापन की। विंध्यपर्वत को ललकारने पर विंध्य ने उसे वाली से युद्ध करने के लिए कहा। (वाली ने उसे युद्ध मे पराभूत भी किया था।) त्रिलोकों में अपना भय फैला कर सभी को रोने से मजबूर करने की वजह से उसका नाम रावण रखा गया। उसने प्रभु श्रीराम की स्त्री (पत्नी) सीता की अभिलाषा की और उसका छल कपट से हरण भी कर लिया। यह उसकी सबसे बड़ी भूल और गलती हुई। औरों के इसके बारे में अवगत कराने पर भी वह अपनी गलती मानने के लिए कभी राजी नहीं हुआ, और आखिर इसी कारण अपने प्राणों से हाथ धो बैठा। रावण सदैव औरों से कठोर शब्दों में बातें करता था। जो भी उसे उचित सलाह देता, उससे भी कठोर बातें करता। बिभीषण, मंदोदरी, सीता, हनुमान सभी के साथ उसने दुर्व्यवहार किया। हमेशा झूठी बातें और झूठा व्यवहार करता। ऋषि के वेश में जाकर सीता से भिक्षा माँग कर छल से उसने सीताहरण किया। बादमें सीता को झूठ का सहारा लेकर श्रीराम के झूठे शिर को बता कर उसने “मैंने श्रीराम को हराकर उसका वध किया” ऐसा कहकर सीताजी को अपने मायाजाल में फाँसने की कोशिश की। श्रीराम की उसने सदैव भर्त्सना की और उसे कमजोर एवम निर्बल बताने की कोशिश की। रावण ने देवों से वरप्राप्ति कर, देव, राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, नाग आदि से अभयप्राप्ति कर ली थी। उसने सदैव मनुष्यगण और प्राणिमात्र को तुच्छ समझकर उनसे अभय नहीं माँगा था। इसी वजह से उसका विनाश भी मनुष्य योनी तथा प्राणियों के द्वारा ही हो सकता था। इसीलिये श्रीविष्णु को मनुष्य रूपी श्रीराम का अवतार ग्रहण करना पड़ा। विश्वरचयिता ब्रह्म की सर्वोच्च रचना मनुष्य की सदैव निंदा करने की और तुच्छ समझने की कीमत उसे चुकानी पड़ी। वाचा अमूल्य है। प्राणवायु को आत्मस्तुति में व्यर्थ गँवाना उचित नहीं है। लेकिन रावण सदैव अपनी स्तुति में व्यस्त रहता था। अनर्गल भाषा मे अपनी स्तुति तथा औरों की अभद्र भाषा में भर्त्सना में व्यस्त रहता। औरों की संपत्ति की वह हमेशा इच्छा करता, आकांक्षा रखता। उसके भाई कुबेर की सुवर्णनगरी लंका का उसने हरण किया और सभी पराजित राजाओं की संपत्ति भी ग्रहण कर ली। औरों के लिये उसने कभी सदिच्छाएँ नहीं रखी और शुभकामनाएंँ भी व्यक्त नहीं की। सभी का उसने अपमान किया और हमेशा औरों के लिये उसने बुरी कामनायें ही रखी। अपनी शक्तियों का उसने दुरुपयोग करते हुए मायाजाल फैलाया। सीता को उसमें फाँसने की कोशिश की , अपने गर्व में अंधा हो गया। इन्हीं दस दुर्गुणों से भरे रावण को दशानन माना गया है। वास्तविकता में उसे दस सर नहीं, दस बड़े दुर्गुण थे। इन दस दुर्गुणों का नाश करके इनपर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में हम विजयादशमी मनाते हैं। आज इस पावन त्योहार के सुदिन मेरी आप सभी को शुभकामनाएँ तथा आपसे विनम्र प्रार्थना की आप और मैं सदैव इन दशदुर्गुणों से बाधित न हों। तभी जाकर हम विजयादशमी को सही तरह से मनायेंगे। रावण भी हमीं में है, और श्रीराम भी…. आपको तय करना है कि आप किसकी जीत होने देंगे। [15/10, 12:06] शिवेंद्र २: *‘दशहरा’ एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है “दस को हरने वाली [तिथि]”। “दश हरति इति दशहरा”।* _‘दश’ कर्म उपपद होने पर ‘हृञ् हरणे’ धातु से “हरतेरनुद्यमनेऽच्” (३.२.९) सूत्र से ‘अच्’ प्रत्यय होकर ‘दश + हृ + अच्’ हुआ, अनुबन्धलोप होकर ‘दश + हृ + अ’, “सार्वधातुकार्धधातुकयोः” (७.३.८४) से गुण और ‘उरण् रपरः’ (१.१.५१) से रपरत्व होकर ‘दश + हर् + अ’ से ‘दशहर’ शब्द बना और स्त्रीत्व की विवक्षा में ‘अजाद्यतष्टाप्‌’ से ‘टाप्’ (आ) प्रत्यय होकर ‘दशहर + आ’ = ‘दशहरा’ शब्द बना।_ *✍️संस्कृत में यह शब्द गङ्गादशहरा के लिये और हिन्दी और अन्य भाषाओं में विजयादशमी के लिये प्रयुक्त होता है। दोनों उत्सव दशमी तिथि पर मनाये जाते हैं।* *📙‘स्कन्द पुराण’ की ‘गङ्गास्तुति’ के अनुसार ‘दशहरा’ का अर्थ है “दस पापों का हरण करने वाली”। पुराण के अनुसार ये दस पाप हैं* ▪️१) “ *अदत्तानामुपादानम्* ” अर्थात् जो वस्तु न दी गयी हो उसे अपने लिये ले लेना ▪️२) “ *हिंसा चैवाविधानतः* ” अर्थात् ऐसी अनुचित हिंसा करना जिसका विधान न हो ▪️३) “ *परदारोपसेवा च”* अर्थात् परस्त्रीगमन (उपलक्षण से परपुरुषगमन भी) 👆 _ये तीन “कायिकं त्रिविधं स्मृतम्” अर्थात् तीन शरीर-संबन्धी पाप हैं।_ ▪️४) “ *पारुष्यम्* ” अर्थात् कठोर शब्द या दुर्वचन कहना ▪️५) “ *अनृतम् चैव* ” अर्थात् असत्य कहना ▪️६) “ *पैशुन्यं चापि सर्वशः* ” अर्थात् सब-ओर कान भरना (किसी की चुगली करना) ▪️७) “ *असम्बद्धप्रलापश्च* ” अर्थात् ऐसा प्रलाप करना (बहुत बोलना) जिसका विषय से कोई संबन्ध न हो _👆ये चार “वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्” अर्थात् चार वाणी-संबन्धी पाप हैं।_ ▪️८) “ *परद्रव्येष्वभिध्यानम्* ” अर्थात् दूसरे के धन का [उसे पाने की इच्छा से] एकटक चिन्तन करना ▪️९) “ *मनसानिष्टचिन्तनम्* ” अर्थात् मन के द्वारा किसी के अनिष्ट का चिन्तन करना ▪️१०) “ *वितथाभिनिवेशश्च* ” अर्थात् असत्य का निश्चय करना, झूठ में मन को लगाये रखना *👆ये तीन “मानसं त्रिविधं स्मृतम्” अर्थात् तीन मन-संबन्धी पाप हैं।* *🔥जो तिथि इन दस पापों का हरण करती है वह ‘दशहरा’ है।* *👉 _यद्वा ‘दश रावणशिरांसि रामबाणैः हारयति इति दशहरा’_* जो तिथि रावण के दस सिरों का श्रीराम के बाणों द्वारा हरण कराती है वह दशहरा है। रावण के दस सिरों को पूर्वोक्त दस शरीर, वाणी, और मन संबन्धी पापों का प्रतीक भी समझा जा सकता है। *🚩विजया-दशमी- (क) शक्ति के १० रूप-यह शक्ति की पूजा है।* विश्व का मूल स्रोत एक ही है पर वह निर्माण के लिये २ रूपों में बंट जाता है, चेतन तत्त्व पुरुष है, पदार्थ रूप श्री या शक्ति है। शक्ति माता है। अतः पदार्थ को मातृ (matter) कहते हैं। सभी राष्ट्रीय पर्वों की तरह यह पूरे समाज के लिये है पर क्षत्रियों के लिये मुख्य है, जो समाज का क्षत से त्राण करते हैं- *_क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः शब्दस्य अर्थः भुवनेषु रूढः।_* (रघुवंशम्, २/५३) *🚩 जयतु🚩 जय हिन्दू राष्ट्र🚩* 🙏🚩🇮🇳🔱🏹🐚🕉️ [15/10, 12:27] शिवेंद्र २: विजयदशमी,आयुध-पूजा विशेष 〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰 आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को विजय दशमी या दशहरे के नाम से मनाया जाता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। दशहरा वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा। इस वर्ष यह शुभ पर्व 15 अक्टूबर शुक्रवार के दिन मनाया जायेगा। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। दशहरा अथवा विजयदशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। दशहरा आयुध पूजन एवं अन्य शुभ मुहूर्त 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ देवी अपराजिता और शमी 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ विजयादशमी के दिन आपको पूजा के लिए शुभ मुहूर्त दोपहर 02 बजकर 05 मिनट से लेकर दोपहर 2 बजकर 45 मिनट तक रहेगा। इस अवधि में आपको देवी अपराजिता और शमी वृक्ष की पूजा करनी चाहिये। दशहरा: शस्त्र पूजा मुहूर्त 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ दशहरा के दिन शस्त्र पूजा के लिए विजय मुहूर्त उत्तम माना जाता है। इस मुहूर्त में किए गए कार्य में सफलता अवश्य प्राप्त होती है। विजयादशमी के दिन शस्त्र पूजा के लिये विजय मुहूर्त दोपहर 02:05 बजे से दोपहर 02:45 बजे तक है। इस समय में आपको अपने शस्त्रों की पूजा करनी चाहिये। शस्त्र पूजन विधि एवं मंत्र 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ सायंकाल में नित्यकर्म से निवृत्त होकर सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रादि को एकत्र करके हाथ में जलपुष्पादि के साथ अपना नाम, गोत्रादि के साथ संकल्प करें, यथा-''ममक्षेमारोग्य आदि सिद्धयर्थं यात्रायांविजय सिद्धयर्थं गणपतिमातृका श्रीराम, शिवशक्ति व सूर्यादि देवता अपराजिता शमीपूजन-अस्त्र-शस्त्रादि पूजनानि करिष्ये।' पुष्पाक्षत लेकर स्वऽस्तिवाचन, गणेश पूजन तथा शक्ति-मंत्र, खड्ग-मंत्र एवं अग्नि यंत्र-मंत्र से पुष्पाक्षत एवं तिलक लगाकर सत्कार पूजन करने के पश्चात् अपराजिता पूजन, भगवान राम, शिव, शक्ति (दुर्गा), गणेश तथा सूर्यादि देवताओं का पूजन करके आयुध-अस्त्र-शस्त्रों (हथियारों) की पूजा इस प्रकार करें- शक्ति मंत्र: शक्तिस्त्वं सर्वदेवानां गुहस्य च विशेषत:। शक्ति रूपेण देवि त्वं रक्षां कुरु नमोऽस्तुते॥ अग्नि यंत्र-मंत्र: अग्निशस्त्र नमोऽस्तुदूरत: शत्रुनाशन। शत्रून्दहहि शीघ्रं त्वं शिवं मे कुरु सर्वदा॥ खड्ग मंत्र: इयं येन धृताक्षोणी हतश्च महिषासुर:। ममदेहं सदा रक्ष खड्गाय नमोऽस्तुते॥ सभी प्रकार के अस्त्रशस्त्रों को तिलक लगाकर पुष्प अर्पण कर देवी अपराजिता की आरती करनी चाहिये। संध्या रावण दहन पूजा का मुहूर्त – शाम 5 बजकर 25 से 09:21 तक। दशमी तिथि आरंभ – 14 अक्तूबर, गुरुवार शाम 06:50 से। दशमी तिथि समाप्त – 15 अक्तूबर शुक्रवार शाम 06:50 बजे तक। दशहरे का महत्त्व 〰〰〰️〰〰 भारत कृषि प्रधान देश है इसलिये जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग का पारावार नहीं रहता। इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है। समस्त भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में भी इसको मनाया जाता है। सायंकाल के समय पर सभी ग्रामीणजन सुंदर-सुंदर नव वस्त्रों से सुसज्जित होकर गाँव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्तों के रूप में 'स्वर्ण' लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं। फिर उस स्वर्ण का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है। विजय पर्व के रूप में दशहरा 〰〰〰️〰〰〰️〰〰 दशहरे का उत्सव शक्ति और शक्ति का समन्वय बताने वाला उत्सव है। नवरात्रि के नौ दिन जगदम्बा की उपासना करके शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिये तत्पर रहता है। इस दृष्टि से दशहरे अर्थात विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव का उत्सव आवश्यक भी है। भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता व शौर्य की समर्थक रही है। प्रत्येक व्यक्ति और समाज के रुधिर में वीरता का प्रादुर्भाव हो कारण से ही दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। यदि कभी युद्ध अनिवार्य ही हो तब शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा ना कर उस पर हमला कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति है। भगवान राम के समय से यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक निश्चित है। भगवान राम ने रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था। मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था। भारतीय इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जब हिन्दू राजा इस दिन विजय-प्रस्थान करते थे। इस पर्व को भगवती के 'विजया' नाम पर भी 'विजयादशमी' कहते हैं। इस दिन भगवान रामचंद्र चौदह वर्ष का वनवास भोगकर तथा रावण का वध कर अयोध्या पहुँचे थे। इसलिये भी इस पर्व को 'विजयादशमी' कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय 'विजय' नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए भी इसे विजयादशमी कहते हैं। ऐसा माना गया है कि शत्रु पर विजय पाने के लिए इसी समय प्रस्थान करना चाहिये। इस दिन श्रवण नक्षत्र का योग और भी अधिक शुभ माना गया है। युद्ध करने का प्रसंग न होने पर भी इस काल में राजाओं (महत्त्वपूर्ण पदों पर पदासीन लोग) को सीमा का उल्लंघन करना चाहिये। दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित करके बारह वर्ष के वनवास के साथ तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास की शर्त दी थी। तेरहवें वर्ष यदि उनका पता लग जाता तो उन्हें पुनः बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ता। इसी अज्ञातवास में अर्जुन ने अपना धनुष एक शमी वृक्ष पर रखा था तथा स्वयं वृहन्नला वेश में राजा विराट के यहँ नौकरी कर ली थी। जब गोरक्षा के लिये विराट के पुत्र धृष्टद्युम्न ने अर्जुन को अपने साथ लिया, तब अर्जुन ने शमी वृक्ष पर से अपने हथियार उठाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। विजयादशमी के दिन भगवान रामचंद्रजी के लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने भगवान की विजय का उद्घोष किया था। विजयकाल में शमी पूजन इसीलिये होता है। दशहरे पर करने के कुछ विशेष उपाय 〰〰〰️〰〰〰️〰〰〰️〰〰 👉 दशहरे के द‌िन नीलकंठ पक्षी का दर्शन बहुत ही शुभ होता है। माना जाता है क‌ि इस द‌िन यह पक्षी द‌िखे तो आने वाला साल खुशहाल होता है। 👉 दशहरा के द‌िन शमी के वृक्ष की पूजा करें। अगर संभव हो तो इस द‌िन अपने घर में शमी के पेड़ लगायें और न‌ियम‌ित दीप द‌िखायें। मान्यता है क‌ि दशहरा के द‌िन कुबेर ने राजा रघु को स्वर्ण मुद्राएंँ देने के ल‌िये शमी के पत्तों को सोने का बना द‌िया था। तभी से शमी को सोना देने वाला पेड़ माना जाता है। 👉 रावण दहन के बाद बची हुई लकड़‌ियांँ म‌िल जाए तो उसे घर में लाकर कहीं सुरक्ष‌ित रख दें। इससे नकारात्मक शक्‍त‌ियों का घर में प्रवेश नहीं होता है। 👉 दशहरे के द‌िन लाल रंग के नये कपड़े या रुमाल से मांँ दुर्गा के चरणों को पोंछ कर इन्‍हें त‌िजोरी या अलमारी में रख दें। इससे घर में बरकत बनी रहती है। 🌼🌼🌼 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️