Thursday, December 24, 2020

भारत इतिहासके पन्ने -१ - राजाजी व पेरियारका सत्तासंघर्ष

  भारत इतिहासके पन्ने -१

· डॉ. अमरनाथ (वैश्विक हिंदी सम्मेलन से)

भारत के एक मात्र गवर्नर जनरल, मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री, प.बंगाल के प्रथम राज्यपाल, भारत के गृहमंत्री, प्रतिष्ठित वकील, लेखक और भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सर्वप्रथम सम्मानित चक्रवर्ती राजगोपालाचारी( 10.12.1878- 25.12.1972) द्वारा दक्षिण में हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए किए गए ऐतिहासिक कार्य सदा स्मरण किए जाएंगे. महात्मा गांधी की प्रेरणा से डॉ. सी.पी.रामास्वामी अय्यर की अध्यक्षता में और एनी बीसेंट के सहयोग से 1918 में ही मद्रास में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना हो गई. इस संस्था के स्थानीय सहयोगी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे. वे उस समय गांधी जी की ओर से वहाँ हिन्दी- प्रचार का काम भी देख रहे थे. गांधी जी को विश्वास था कि पूरे देश को एकता के सूत्र में बांधने की क्षमता सिर्फ हिन्दी में ही है. इसीलिए हिन्दी के प्रचार के लिए गांधी जी ने अपने बेटे देवदास को मद्रास भेजा. मद्रास में राजगोपालाचारी के घर पर रह कर ही शुरुआत में देवदास ने हिन्दी के प्रचार का काम संभाला. इसी दौरान चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जी की बेटी लक्ष्मी के संपर्क में देवदास आए और बाद में उनकी शादी हुई. दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के पहले प्रचारक देवदास गांधी ही थे.

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को संक्षेप में राजा जी कहकर भी पुकारा जाता है. राजा जी ने 1929 में ही दक्षिण की जनता को सुक्षाव दिया कि हिन्दी भावी भारत की राजभाषा है, हमें अभी से उसे जरूर सीख लेनी चाहिए. ( हिन्दू, 4.2.1929) उनका विचार था कि राजनीतिक, सामाजिक तथा व्यावसायिक, सभी दृष्टियों से हिन्दी दक्षिण भारत के विद्यालय पाठ्यक्रम का एक आवश्यक अंग होनी चाहिए. दक्षिण भारत के लिए संभव नहीं कि वह आने वाले स्वराज में मताधिकार से वंचित रहे. सभी दक्षिण भारतीयों को हिन्दी सीखनी ही चाहिए, क्योंकि अगर भारत में किसी भी प्रकार की जनतांत्रिक सरकार बनेगी तो केवल हिन्दी ही राजभाषा हो सकेगी.  ( हिन्दी प्रचारक, मार्च 1929, पृष्ठ-70)

राजा जी दक्षिण के ऐसे पहले व्यक्ति हैं जिनके नेतृत्व में 14 जुलाई 1937 को मद्रास प्रेसीडेंसी में कांग्रेस की सरकार बनी और राजा जी मुख्यमंत्री बने.  मुख्यमंत्री बनते ही 21 अप्रैल 1938 को उन्होंने अपने प्रान्त के माध्यमिक विद्यालयों में हिन्दुस्तानी ( हिन्दी ) का शिक्षण अनिवार्य कर दिया. उन्होंने कहा कि, मद्रास के दोनो सदनों ने अच्छी तरह विचार करने के पश्चात हिन्दुस्तानी को प्रचलित करने के पक्ष में मत दिया है. यदि हम सदनों के मतों को कार्य रूप में परिणत नहीं करते तो हम अपने कर्तव्य से विमुख होते हैं और इस योग्य नहीं हैं कि सरकार में रहें. ( बंबई सार्वजनिक सभा,1938, उद्धृत, हिन्दी : राष्ट्रभाषा से राजभाषा तक, पृष्ठ-82)

उन्होंने स्पष्ट किया कि सरकार की नीति इस संबंध में केवल यह है कि हिन्दी का, जो भारत के अधिकाँश भागों में बोली जाती है-काम चलाऊ ज्ञान हो जाय, ताकि इस प्रदेश के विद्यार्थी इस योग्य हो जाएं कि दक्षिण तथा उत्तर में सुविधापूर्वक विचार-विनिमय कर सकें. ( मद्रास विधान सभा, 21.3.1938, उद्धृत, राष्ट्रभाषा से राजभाषा तक, पृष्ठ-82)

      उन दिनों राज्य में स्वाभिमान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे ईवी रामासामी पेरियार की जस्टिस पार्टी विपक्ष में थी. उसने इसका विरोध करने का फैसला किया. जस्टिस पार्टी और मुस्लिम लीग ने मिलकर तमिझ पदाई (तमिल ब्रिगेड) तैयार कीजिसने त्रिची से मद्रास तक  42 दिनों की पदयात्रा निकाली. यह यात्रा एक अगस्त से 11 सितंबर 1938 तक चली थी. अपने रास्ते में यह यात्रा 239 गांवो और 60 क़स्बों से गुज़री थी. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़ इस लंबी पदयात्रा में 50 हज़ार लोग शामिल हुए थे. आन्दोलन को व्यापक बनाने किए ब्राह्मण विरोधी सेन्टीमेंट को खूब उभारा गया. प्रचारित किया गया कि हिन्दी और संस्कृत के माध्यम से तमिल को दबाया जा रहा है. उनके नारों में, 'आर्य हँस रहे हैं और तमिल रो रहे हैंऔर 'ब्राह्मण समुदाय मातृभाषा तमिल की हत्या कर रहे हैं', जैसे उत्तेजक नारे शामिल थे.

देखते ही देखते पूरे प्रदेश में हिन्दी-विरोधी आंदोलन फैल गया. यह आन्दोलन तीन साल तक चलता रहा. इस दौरान जगह जगह हिंदी-विरोधी सभाएं आयोजित होती रहीं. महिलाएं भी इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही थीं. महिलाओ की ही एक सभा में ईवी रामास्वामी नायकर को 'पेरियार' (महान) की उपाधि से सम्मानित किया गया था. पेरियार ने 'तमिलनाडु केवल तमिलों के लिएका नारा दिया और उन्होंने एक अलगसंप्रभु द्रविड़ राष्ट्र की मांग तक कर डाली.

 किन्तु राजा जी और शिक्षा मंत्री सुब्रायन ने इस आन्दोलन का डटकर मुकाबला किया. विरोधियों की गिरफ्तारी शुरू हो गई. 1198 व्यक्ति गिरफ्तार हुए, जिनमें से 1179 को जेल की सजा हुई. जेल जाने वालों में 73 महिलाएं और 32 बच्चे थे जो अपनी माताओं के साथ थे. महिलाओं को भड़काने के आरोप में ईवी रामासामी पेरियार को 1000 रूपए का अर्थदंड और एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा हुई किन्तु स्वास्थ्य संबंधी कारणों से छह महीने बाद ही अर्थात् 22 मई 1939 को उन्हें रिहा कर दिया गया. इस आन्दोलन में थालामुथु नाडार तथा नटरासन नाम के दो आन्दोलनकारी मारे गए.

मद्रास प्रेसीडेंसी में हिंदी विरोध का यह आंदोलन तब जाकर ख़त्म हुआजब अक्टूबर 1939 में भारत को दूसरे विश्व युद्ध में घसीटे जाने के ख़िलाफ़ राजा जी ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. इसके बाद अंग्रेज गवर्नर लॉर्ड अर्सकाइन ने 21 फरवरी 1940 को फैसला वापस ले लिया. उसका तर्क था कि '’हिंदी को अनिवार्य बनाने के फ़ैसले से इस सूबे में बहुत मुश्किलें पैदा हो रही हैं. ये फ़ैसला राज्य की जनभावना के निश्चित रूप से ख़िलाफ़ है.'’ इससे तत्काल आंदोलन तो थम गया किन्तु नेताओं को हिन्दी विरोध के राजनीतिक रंग का चस्का लग चुका था जिसका असर बाद में भी समय- समय दिखाई देता रहता है.

तमिलों का हिंदी- विरोध 1949 में होने वाली संविधान सभा की बैठकों में भी देखा गया. उस समय टी.टी. कृष्णमाचारी और एन. गोपालस्वामी आयंगर जैसे नेताओं ने हिंदी को 'राष्ट्रभाषाघोषित करने से संविधान सभा को रोका. मुख्य रूप से उन्ही के विरोध के कारण राजभाषा के मसले को अगले 15 साल, यानी 1965 तक के लिए टाल दिया गया.

इसी बीच 1949 में सी.एन.अन्नादुराइ ने ई.वी.रामासामी पेरियार की पार्टी द्रविड़ कड़गम से अलग होकर नई पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम बना ली थी. एम. करुणानिधि भी पेरियार से अलग होकर उनके साथ हो गए. यह नई पार्टी भी हिन्दी को लेकर अपने पुराने रुख पर कायम रही. हिन्दी विरोधी सम्मेलनों व हिन्दी- विरोध दिवस मनाने का सिलसिला जारी रहा. जैसे ही पंद्रह वर्ष की अवधि नजदीक आने लगीडीएमके नेता सी.एन. अन्नादुराइ ने 1963 में घोषणा की कि, '’ये तमिल लोगों का कर्तव्य है कि वे हिंदी थोपने वालों के ख़िलाफ़ जंग लड़ें.'’

संसद में 1963 में राजभाषा विधेयक पेश किया गया. डीएमके नेता अन्नादुराइ उस समय राज्यसभा सांसद थे. उन्होंने संसद में इसका विरोध किया. जब यह विधेयक पास हो गया तो मद्रास राज्य की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. जैसे-जैसे 26 जनवरी, 1965 का दिन करीब आता गया विरोध प्रदर्शनों में तेजी आती गई. यह पूरा आन्दोलन राजनीतिक था. डीएमके नेता दोराई मुरुगन उन पहले लोगों में से थेजिन्हें तब के मद्रास शहर के पचाइ अप्पन कॉलेज से गिरफ़्तार किया गया था. मुरुगन बताते हैं कि, "हमारे नेता सी.एन. अन्नादुराई 26 जनवरी को सभी घरों की छत पर काला झंडा देखना चाहते थे. चूंकि इसी दिन गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम भी थेइसलिए उन्होंने तारीख बदलकर 25 जनवरी कर दी थी. इस आन्दोलन में हज़ारों लोग गिरफ़्तार किए गए थे. मदुरई में विरोध प्रदर्शनों ने हिंसक रूप ले लिया. स्थानीय कांग्रेस दफ्तर के बाहर एक हिंसक झड़प में आठ लोगों को ज़िंदा जला दिया गया. 25 जनवरी को 'बलिदान दिवसका नाम दिया गया." डीएमके के नेतृत्व में चलने वाले इस आन्दोलन में बड़ी संख्या में निर्दोषों ने जान गंवाई. तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के आश्वासन के बाद ही शांति वापस आ सकी.

तमिलनाडु का हिन्दी से विरोध का पहला कारण यह है कि तमिल अपनी भाषा को संस्कृत से भी पुरानी मानते हैं. इसलिए यदि कोई भी भाषा राष्ट्र भाषा बन जाये तो वहां उसका विरोध होना निश्चित है. हिन्दी के विरोध के नाम पर वहां तमिल अस्मिता भड़काकर कभी भी आन्दोलन चलाया जा सकता है. तमिलों की हिन्दी विरोधी ग्रंथि को गांधी जी समझ रहे थे. संभवतः इसीलिए उन्होंने ही सबसे पहले दक्षिण भारत में हिंदी को प्रचारित करने का बीड़ा उठाया था. दक्षिण और उत्तर भारत के बीच की खाई को दूर करने के लिए महात्मा गांधी शुरू से ही चिंतित थे. 1915 में ही उन्होंने अपने साबरमती आश्रम में काम करने वाले तिरुनेल्वेलि के हरिहर शर्मा और मद्रास के शिवराम शर्मा को हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजाजहां राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन की देख-रेख में चल रहे हिंदी साहित्य सम्मेलन से उन्होंने हिंदी सीखी.

 9 फरवरी 1936 को मद्रास ( चेन्नई ) के टी नगर में मद्रास के मेयर अब्दुल हमीद खां ने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के भवन की नींव रखी और 7 अक्टूबर 1936 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भवन का उद्घाटन किया. यह भवन आज भी टी नगर में है और सभा अपना काम जारी रखे हुए है. राजा जी के अतिरिक्त कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पट्टाभि सीतारमैयानागेश्वर रावश्रीनिवास आयंगर जैसे दक्षिण के अनेक बड़े नेता इस सभा से जुड़े रहे. मृत्युपर्यंत गांधी जी इसके अध्यक्ष बने रहे. बाद में बाबू राजेंद्र प्रसादलाल बहादुर शास्त्रीइंदिरा गांधीराजीव गांधीपी.वी. नरसिंहा राव सहित कई नेता इसके अध्यक्ष रहे.

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जन्म मद्रास प्रेसीडेंसी के सलेम जिले के थोरापल्ली गाँव में एक धार्मिक आयंगर परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम चक्रवर्ती वेंकटआर्यन और माता का नाम सिंगारम्मा था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा थोरापल्ली में ही हुई. जब वे पांच वर्ष के थे तो उनका परिवार होसुर चला गया जहाँ से उन्होंने मैट्रिकुलेशन की परीक्षा सन 1891 में पास की. 1894 में उन्होंने बैंगलोर के सेंट्रल कॉलेज से ग्रेजुएशन किया और इसके बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास से उन्होंने कानून की पढाई की.

सन 1900 के आस-पास उन्होंने वकालत प्रारंभ की. इसी दौरान बाल गंगाधर तिलक से प्रभावित होकर उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य बन गए. राजनीति में आने के बाद वे पहले सलेम नगर पालिका के सदस्य और बाद में अध्यक्ष चुने गए. कांग्रेस में उनकी गतिविधियाँ तेजी से बढ़ने लगीं और वे कलकत्ता (1906) और सूरत (1907)  में होने वाले कांग्रेस के अधिवेशनों में हिस्सा लिया.

1919 में जब गाँधी जी ने रौलट ऐक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह आन्दोलन आरंभ किया तो उन्हीं दिनों वे गाँधी जी के सम्पर्क में आये. गांधी जी का उनपर व्यापक प्रभाव पड़ा. गाँधी जी ने भी उनकी प्रतिभा को पहचाना और उनसे मद्रास में सत्याग्रह के नेतृत्व का आह्वान किया. उन्होंने पूरी निष्ठा से मद्रास सत्याग्रह आन्दोलन का नेतृत्व किया और गिरफ्तार होकर जेल गये. जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपनी वकालत सहित दूसरी सुख सुविधाओं का त्याग कर दिया और पूर्ण रूप से देश के स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ गए.

1921 में वे कांग्रेस के सचिव चुने गए. इसी वर्ष गांधी जी ने नमक सत्याग्रह आरंभ किया. इस आन्दोलन के तहत उन्होंने जनजागरण के लिए पदयात्रा की और वेदयासम के सागर तट पर नमक क़ानून का उल्लंघन किया. परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर पुन: जेल भेज दिया गया. इस समय तक गांधी जी के वे प्रिय सहयोगी बन चुके थे. यद्यपि कई अवसर ऐसे भी आयेजब राजा जी, गाँधी जी और कांग्रेस के विरोध में आ खड़े हुएकिंतु इसे भी उनकी दूरदर्शिता और उनकी कूटनीति का ही एक अंग समझा गया.

1930-31 में जब असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ तो उसमें भी राजा जी ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और जेल गये. उनकी सूझबूझ और राजनीतिक कुशलता का उदाहरण उस अवसर पर देखने को मिलता हैजब हरिजनों के पृथक् मताधिकार को लेकर गांधी जी और डॉ. भीमराव अंबेडकर के बीच मतभेद उत्पन्न हो गये थे. एक ओर जहाँ गाँधी जी इस संदर्भ में अनशन पर बैठ गये थेवहीं अंबेडकर भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे उस समय राजा जी ने उन दोंनों के बीच बड़ी ही चतुराई से समझौता कराकर विवाद को शांत कराया था.

 गाँधी जी से राजा जी की निकटता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भी गाँधी जी जेल में होते थेउनके द्वारा संपादित पत्र 'यंग इंडियाका सम्पादन राजा जी ही करते थे. जब कभी गाँधी जी से पूछा जाता था, 'जब आप जेल में होते हैंतब बाहर आपका उत्तराधिकारी किसे समझा जाए?' तब गाँधी जी बड़े ही सहज भाव से कहते, 'राजा जीऔर कौन?' गाँधी जी और राजा जी के संबंधों में तब और भी अधिक प्रगाढ़ता आ गयी जब सन् 1933 में राजा जी की पुत्री और गाँधी जी के पुत्र वैवाहिक बंधन में बंध गये.

1937 के चुनाव के बाद मद्रास प्रेसीडेंसी में राजा जी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. लगभग तीन साल बाद कांग्रेस के निर्देश पर उन्होंने इस्तीफा दिया. उन्हें दिसम्बर 1940 में गिरफ्तार कर एक साल के लिए जेल भेज दिया गया. उन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का विरोध किया और ‘मुस्लिम लीग’ के साथ संवाद की आवश्यकता पर बल दिया. उन्होंने विभाजन के मुद्दे पर जिन्ना और गाँधी के बीच बातचीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

15 अगस्त 1947 को देश की आजादी के साथ-साथ बंगाल भी दो हिस्सों में बंट गया. राजा जी को पश्चिम बंगाल का प्रथम राज्यपाल बनाया गया. इसके अलावा भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन की अनुपस्थिति में राजा जी 10 नवम्बर से 24 नवम्बर 1947 तक कार्यकारी गवर्नर जनरल रहे और फिर बाद में माउंटबेटन के जाने के बाद जून 1948 से 26 जनवरी 1950 तक गवर्नर जनरल रहे. इस प्रकार राजा जी न केवल अंतिम बल्कि प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल भी रहे.

सन 1950 में नेहरू ने राजा जी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया जहाँ वे बिना किसी मंत्रालय के मंत्री थे. सरदार पटेल के निधन के पश्चात उन्हें गृह मंत्री बनाया गया जिस पद पर उन्होंने 10 महीने कार्य किया. प्रधानमंत्री नेहरु के साथ बहुत सारे मुद्दों पर मतभेद होने के कारण अंततः उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया.

जनवरी 1957 में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया और मुरारी वैद्य तथा मीनू मसानी के साथ मिलकर सन 1959 में एक नए राजनीतिक दल ‘स्वतंत्रत पार्टी’ की स्थापना की. बाद में एन. जी. रंगाके. एम. मुंशी और फील्ड मार्शल के. एम. करिअप्पा भी इसमें शामिल हुए. स्वतंत्रत पार्टी 1962 के लोक सभा चुनाव में 18 और 1967 के लोक सभा चुनाव में 45 सीटें जीतने में कामयाब रही और तमिलनाडु समेत कुछ अन्य राज्यों में भी उसका प्रभाव रहा.

उल्लेखनीय यह है कि जबतक राजा जी काँग्रेस से जुड़े रहे तबतक हिन्दी के पक्ष में लड़ते रहे किन्तु जैसे ही उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दिया, वे हिन्दी- विरोधी हो गए. यहाँ तक कि उन्होंने हिन्दी को देश की बहुसंख्यक जनता की भाषा मानने से भी इनकार कर दिया और उसे एक क्षेत्रीय भाषा कहकर उसके महत्व को कम करके आंका. उन्होंने अपने पत्र स्वराज्य के जनवरी 1968 के अंक में लिखा, हिन्दी इज स्ट्रिक्टली स्पीकिंग ओनली ए रिजनल लैंग्वेज एण्ड नॉट द लैंग्वेज ऑफ ऑवर पीपुल स्प्रेड इवेनली आल ओवर कंट्री. उन्होंने अंग्रेजी को यथावत जारी रखने का समर्थन किया और कहा, द ऑफिसियल लैंग्वेज अमेंडमेंट बिल इज एन एम्पटी गिफ्ट टू द नॉन हिन्दी रीजन्स. इससे पता चलता है कि दक्षिण का हिन्दी विरोध पूरी तरह राजनीतिक है और जिसे भी दक्षिण की राजनीति में सफल होना है उसे हिन्दी विरोध का अस्त्र अपनाना ही होगा.

राजा जी का विवाह वर्ष 1897 में अलामेलु मंगम्मा के साथ संपन्न हुआ. उनके तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं. सन 1916 में ही मंगम्मा का स्वर्गवास हो गया. जिसके बाद राजा जी ने ही अपने बच्चों के पालन-पोषण का दायित्व निभाया.

नवम्बर 1972 में राजा जी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और 17 दिसम्बर 1972 को उन्हें मद्रास गवर्नमेंट हॉस्पिटल में भर्ती कराया गयाजहाँ उन्होंने 25 दिसम्बर को अंतिम सांसें लीं.

राजा जी तमिल और अंग्रेज़ी के प्रतिष्ठित लेखक थे. 'गीताऔर 'उपनिषदोंपर उनकी टीकाएं प्रसिद्ध हैं. सन 1958 में उन्हें उनकी पुस्तक ‘चक्रवर्ती थिरुमगन’ के लिए तमिल का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. भारत सरकार ने उन्हें सन 1955 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया. भारत रत्न पाने वाले वे पहले व्यक्ति थे.

हम चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के जन्मदिन पर उनके द्वारा हिन्दी के हित में किए गए कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.

( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष

Saturday, November 7, 2020

जीवकी गति

 शरीर त्यागने के बाद जीव की चार गतियांँ -----

(१)   सद्योमुक्ति

(२)   क्रममुक्ति अर्थात्  उत्तरायण-गति अर्थात् देवयान-मार्ग ।

(३)   पितृयान-मार्ग अर्थात् दक्षिणायन-गति

(४)  जायस्व-म्रियस्व गति

इन चारों गतियों का वर्णन वेदों , उपनिषदों तथा पुराणादिकों में पाया जाता है ,  उन्हीं के आधार पर यहाँ लिखते हैं ===


(१)   सद्योमुक्ति ==     


जीवन-मुक्त  सिद्ध-महात्मा , ब्रह्मविद्-वरिष्ठ अपने जीवनकाल में ही अनेक जन्मों के सञ्चित शुभ-कर्मों को ब्रह्मज्ञान-रूपी अग्नि से भस्म कर देते हैं।


  अतः ब्रह्म-साक्षात्कार के अनन्तर होने वाले जीवन-यात्रा-निर्वाह सम्बन्धी कर्मों में आसक्ति-ममता न होने के कारण इन कर्मों का फल उन्हें नहीं मिलता।


 प्रारब्ध-कर्मों को वे भोगकर क्षीण कर देते हैं ।


प्रारब्ध-सञ्चित-क्रियमाण  तीन कर्मों के फलस्वरूप तथा स्थूल-सूक्ष्म-कारण  तीन शरीरों के माध्यम से ही जीव पुनर्जन्म को प्राप्त करता है।


 अतः ऐसे जीवन-मुक्त-महात्मा जब स्थूल-शरीर छोड़ते हैं , तो तीनों कर्मों के नष्ट हो जाने पर भीतर के सूक्ष्म-कारण शरीर को त्याग कर किसी दूसरे लोक या शरीर में नहीं जाते , तत्काल वहीं , उसी समय मुक्त हो जाते हैं ।


जैसे घटाकाश का आकाश घड़ा फूटने पर महाकाश में लीन होता है , वैसे ही ये महात्मा ब्रह्म में लीन हो जाते हैं । 


वेद में कहा है ----  "न स पुनरावर्तते , अनावृत्ति शब्दात्"


गीता में भी भगवान् कहते हैं ---- "यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।"


(२)     देवयान-गति  ==    


इसे उत्तरायण-मार्ग भी कहते हैं।   यह योगियों के लिये है ,  सर्व-साधारण जीवों के लिये नहीं ।


यहाँ काल से तात्पर्य है --- जो योगी ध्यान-धारणा-समाधि के द्वारा ब्रह्मानुभूति के अनन्तर शरीर त्यागते हैं , वे दिन-रात्रि , शुक्ल पक्ष - कृष्ण पक्ष , उत्तरायण व दक्षिणायन  कभी भी शरीर त्यागें ,  उनके सूक्ष्म-कारण शरीर को ज्योति तथा दिन के अभिमानी देवता ले जाते हैं  और वह शुक्ल-पक्ष के अभिमानी देवता को सौंपते है ।


 उसके अभिमानी देवता उत्तरायण के छः महीनों के अभिमानी देवता को सौंपते हैं।  उससे उनके शरीर को वर्ष का अभिमानी देवता लेता है ।  वर्ष का अभिमानी देवता सूर्य-मण्डल में ले जाता है । 


वहाँ से वह चन्द्र-मण्डल को प्राप्त करता है । चन्द्रमा से विद्युत को प्राप्त करता है । वहाँ से अमानव-पुरुष ब्रह्म को प्राप्त करता है ------ यह देवयान-मार्ग है ।


  इसको प्राप्त होने वाला योगी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता है -------- ऐसा बृहदारण्यकोपनिषद् के छठवें अध्याय के दूसरे ब्राह्मण के पन्द्रहवें मन्त्र में आया है ।


मूल मन्त्र इस प्रकार है ----  


 "ते य एवमेतद्विदुर्ये चामी अरण्ये श्रद्धां सत्यमुपासते तेऽर्चिरभिसंभवन्ति ।

अर्चिषोऽहः ।


अह्न आपूर्यमाणपक्षम् ।

आपूर्यमाणपक्षाद्यान् षण्मासानुदङ्ङादित्य एति ।

मासेभ्यो देवलोकम् ।


देवलोकादादित्यम् ।

आदित्याद्वैद्युतम् ।


तान् वैद्युतान् पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकान् गमयति ।

ते तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः परावतो वसन्ति ।

तेषां न पुनरावृत्तिः ॥ "  【बृह. ६,२.१५】


देवयान-गति ऐसे ब्रह्मवेत्ताओं की गति है , जिनको पूर्ण-ब्रह्म का बोध हो चुका है किन्तु  ब्रह्मलोक का सुख भोगने के अनन्तर ब्रह्मलोक से मुक्त होना चाहते हैं ।


  उन योगियों को ब्रह्मलोक के भोग के अनन्तर ब्रह्मलोक से मुक्ति मिलती है ।


इन औपनिषदिक-मन्त्रों में कहे गये दिन-पक्ष-मास का अर्थ काल नहीं है , किन्तु काल के अभिमानी देवताओं से इनका तात्पर्य है ।


इसी बात को भगवान् ने गीता के आठवें अध्याय के तेइसवें व चौबीसवें श्लोक में कहा है -----


"यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥


अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।।"


अर्थ =   


हे अर्जुन ! 


 जिस काल में (यहाँ काल शब्द से मार्ग समझना चाहिये, क्योंकि आगे के श्लोकों में भगवान् ने इसका नाम 'सृति', 'गति' ऐसा कहा है।)   शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन तो वापस न लौटने वाली गति को और जिस काल में गये हुए वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात् दोनों मार्गों को कहूँगा । 【२३】


जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं,  दिन का अभिमानी देवता है,  शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाये जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । 【२४】


अब यहां कुछ लोग शंका करते हैं कि उपनिषद् तथा गीता में पक्ष आदि से काल का ही ज्ञान होता है , क्योंकि यदि काल के अभिमानी देवता होते , तो भीष्म-पितामह दक्षिणायन में शरीर छोड़ने वाले थे।


 किन्तु उन्होंने पिता के वरदान तथा योगशक्ति के प्रभाव से उत्तरायण की प्रतीक्षा की। 


   यदि समय का प्रतिबन्ध न होता तो उत्तरायण की प्रतीक्षा न करते । इससे काल सिद्ध होता है !


तो इसका उत्तर है ----  भीष्म-पितामह पूर्व जन्म में आठ वसुओं में अन्तिम "द्यु" नामक वसु थे ।


वशिष्ठ जी का इन वसुओं को शाप था ,  क्योंकि ये आठों भाई वशिष्ठ जी की नन्दिनी गऊ चुराकर ले जा रहे थे।


 पता चलने पर वशिष्ठ जी उनके पीछे पड़ गये। सात वसु तो भागने में सफल हुए किन्तु  अन्तिम आठवें वसु पकड़ में आ गये ।


 पाठान्तर में कहा गया है कि सात वसुओं ने क्षमा याचना की तो उन्हें केवल एक दिन के मृत्युलोक में जाने का दंड मिला। किंतु अंतिम द्यु नाम के वसु ने क्षमा याचना नहीं की और पूरा दंड भोगने की इच्छा व्यक्त की। तब उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान मिला।


गुरु वशिष्ठ जी ने सात वसुओं को शाप दिया कि अगले जन्म में तुम्हारी माता के हाथों ही मृत्यु होगी ,  आठवें वसु से कहा 'तुम दीर्घजीवी होगे तथा तुम्हारी इच्छामृत्यु होगी'।  वही आठवें वसु दूसरे जन्म में देवव्रत हुए ।


इनको गुरु वशिष्ठ जी तथा पिता शान्तनु जी का स्वेच्छा-मृत्यु का वरदान था , अतः उन्होंने काल की प्रतीक्षा की  ------  यह कथा महाभारत के आदिपर्व के सम्भव उपपर्व में आई है ।


अतः उत्तरायण काल का योगी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।  युक्त-योगी जब भी चाहें  दिन में या रात्रि में ,  शुक्ल-पक्ष में या कृष्ण-पक्ष में , दक्षिणायन में या उत्तरायण में ------ कभी भी शरीर त्यागें ,  उन पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता ।  किन्तु  शुक्ल-दक्षिण-उत्तरायण आदि के देवता उनको देवलोक में ले जाते हैं ।


यदि दिन- शुक्ल पक्ष- उत्तरायण आदि का नियम होता तो दिन - शुक्ल पक्ष - उत्तरायण आदि में भू-मण्डल में न जाने कितने अरबों-खरबों जीव शरीर त्यागते हैं , उन सबकी भी मुक्ति हो जानी चाहिये। अतः  यह नियम देवयान वाले योगीयों के लिये है , सर्व-साधारण के लिये नहीं ----- यह सिद्ध हुआ ।


(३)  पितृयान-मार्ग  ==    


 बृहदारण्यकोपनिषद् के ही छठें अध्याय में दूसरे ब्राह्मण के सोहलवें मन्त्र में दक्षिणायन-मार्ग से जाने वाले योगियों के विषय में कहा है------      


"अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसंभवन्ति ।


धूमाद्रात्रिम् ।

रात्रेरपक्षीयमाणपक्षम् ।


अपक्षीयमाणपक्षाद्यान् षण्मासान् दक्षिणादित्य एति ।

मासेभ्यः पितृलोकम् ।

पितृलोकाच्चन्द्रम् ।


ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति।

तांस्तत्र देवा यथा सोमं राजानमाप्यायस्वापक्षीयस्वेत्येवमेनांस्तत्र भक्षयन्ति ।


तेषां यदा तत्पर्यवैत्यथेममेवाकाशमभिनिष्पद्यन्ते ।

आकाशाद्वायुम् ।


वायोर्वृष्टिम् ।

वृष्टेः पृथिवीम् ।


ते पृथिवीं प्राप्यान्नं भवन्ति ।

ते पुनः पुरुषाग्नौ हूयन्ते ततो योषाग्नौ जायन्ते ।

लोकान् प्रत्युथायिनस्त एवमेवानुपरिवर्तन्ते ।


अथ य एतौ पन्थानौ न विदुस्ते कीटाः पतङ्गा यदिदं दन्दशूकम् ॥"   【बृ ६,२.१६】


अर्थात्  जो सकाम भाव से यज्ञ-दान-तपस्या से लोकों को जीतते हैं ,  वे शरीर त्यागने के अनन्तर धुएं के रूप में प्राप्त होते हैं ,  धूम से रात्रि ,  रात्रि से कृष्ण-पक्ष ,  कृष्ण-पक्ष से दक्षिणायन का महीना ।


इन छः मासों से पितृलोक को ,  पितृलोक से चन्द्र-मण्डल को प्राप्त करते हैं ,  वहाँ पर बहुत काल तक सुख भोगते हैं,   (पुण्य क्षीण होने पर) भाफ ,  भाफ से कुहरा ,  कुहरे से बादल , बादल से जल के बूँदों द्वारा अन्न रूप में प्रकट होते हैंं ।


वहाँ पर जैसे देवता सोम का पान करते हैं ,   वैसे ही देवता उसको खाते हैं।


  वहाँ से वह आकाश को प्राप्त करता है। आकाश से वायु में आता है । वायु से वर्षा में आता है । वर्षा से पृथ्वी में अन्न-जल-रस को प्राप्त करता है । अन्न-जल के रूप में भावी पिता के वीर्य में आता है।


यदि कच्चा अन्न या फल टूटकर गिर जाता है , तो अन्तराल में नष्ट हो जाता है।


 यदि उस अन्न आदि को ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी , संन्यासी या नपुंसक सेवन करता है ,  या ऊसर में गिरता है तो भी नष्ट हो जाता है ।


यदि पुरुष सेवन करता है , तो पुरुष के पेट की अग्नि में आता है ,  पिता के पेट की अग्नि में २८ दिन पकने के बाद क्रमानुसार रक्त-मांस- अस्थि-मेद-मज्जा के अनन्तर वीर्य के रूप में होता है ।


पिता द्वारा माता के पेट की अग्नि में आता है , उसमें नौ महीने रहकर पुरुष होता है ।


तद्-तद् अन्न-फल आदि को कोई पशु-पक्षी भक्षण करता है , तो पशु-पक्षी का या कीट-पतंग-खटमल आदि का जन्म होता है ।


पुरूष द्वारा स्त्री के शरीर में रहने के बाद पुरुष के रुप में जन्म लेकर मनुष्य शरीर में आता है ----- इस बात को संक्षेप में भगवान् ने गीता के आठवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में कहते हैं --


"धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥"


अर्थात् =   


जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता है, रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्ण पक्ष का अभिमानी देवता है और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्म करने वाला योगी उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चंद्रमा की ज्योत को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता ह ।


(४)   जायस्व-म्रियस्व मार्ग ==  


  यह गति सर्व-साधारण जीवों की है ,  जो मनुष्य शरीर प्राप्त करके सामान्य रूप से तीन प्रकार के शुभ-अशुभ तथा मिश्रित कर्म करते हैं , वे शरीर त्यागने के बाद शुभ-कर्मों से सुख-प्रधान देव शरीर प्राप्त करते हैं ।


जो पाप करते हैं , वे नरक भोगने के लिये यातनामय देह प्राप्त करते हैं ।


  उसके बाद चौरासी लाख योनियों को प्राप्त करते हैं तथा जो मिले-जुले कर्म करते हैं । वह मनुष्य शरीर प्राप्त करते हैं ------

 यह सर्व-साधारण का मार्ग है ।

Friday, November 6, 2020

हाथरस डायरी

 🔴भारत बचाओ मंच 🔴




भारत जीता जागता राष्ट्र पुरुष है।

इसका कँकड कँकड शंकर, बिन्दु बिन्दु  गंगाजल है। 


इसके अस्तित्व के साथ ही हमारा  अस्तित्व है 


हम सम्पूर्ण जीवन इसकी सेवा के लिए। 

हमारी मृत्यु हो वह भी इसकी रक्षा  के लिए 


यह हम सबका सामूहिक सँकल्प हैं। 



भारत की संतानों में  कोई छोटा कोई बडा कैसे हो सकता है 

सबका बराबर महत्व है 

हमारा रक्त एक

हमारी शरीर एक

हमारी माँ एक

हमारा संस्कृति एक है 


हम जैन, सिख, बौद्ध, सनातनी, मूर्ति पूजक, निरंकारी, आदिवासी, गिरिवासी, हो सकते हैं। 



किन्तु जन्म देने वाली माँ एक है।



तो विधर्मियों की कुटिल चाल ने 

हमको पृथकता के राह पर खडा किया है 

षड्यन्त्रों को शीघ्रता से पहचाने

मूल की ओर  वापस लौटें



।भारत बचाओ विश्व बचाओ। 


इसी  कारण हाथरस में जो कई वाल्मीकिओने बौद्ध धर्म में परिवर्तन किया उसे समय रहते रोका जाना चाहिए था या अभी भी उन्हें वापस बुलाया जा सकता है  ! वास्तव में ब्राह्मणों को ही आगे आकर वाल्मीकि समाजके लोगोंके साथ भाईचारा स्थापित करना होगा और इसका एक सहयोगी सूत्र है परम गुरु आराध्य कवि श्री वाल्मीकि ! परंतु इसकी ओर ब्राह्मण समाज ध्यान नहीं दे रहा ! दूसरी बात कि किसी जमानेमें ब्राह्मण समाजके विद्वान पंडित वनोंमें रहकर गुरुकुल चलाते थे और उस समय उनके सारे सहकर्मी वनोंमें ही रह कर उनका सहयोग करते थे हाथ बटाते थे!  आज ब्राह्मण समाज वनोंसे बाहर निकलकर शहरोंमें आ बसा है और अध्ययन अध्यापन उपासना साधना व अन्वेषणाको छोड़कर बिजनेसमें व नौकरीमें लगा हुआ है ! ब्राह्मण समाजके कुछ लोगोंको वापस वनजीवन की ओर मुड़ना होगा और वनवासी साथियों के साथ खड़े रहना होगा ! उनकी तरह जीकर दिखाना होगा और अपनी आलोचना की परंपरा को आगे बढ़ाना होगा ! उस परंपरा में उन वनवासियों को साझेदारी देनी होगी !

तो वाल्मीकि दलित समाज के साथ जब तक ब्राह्मण खड़ा नहीं रहेगा, इसी प्रकार वनवासी समाज के साथ जब तक ब्राम्हण खड़ा नहीं रहेगा तब तक सनातन संस्कृति का बचना कठिन है

Saturday, August 29, 2020

सांस्कृतिक अंक


*एक सत्य
* दो लिंग :* नर और नारी ।
*दो पक्ष :* शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
*दो पूजा :* वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
*दो अयन :* उत्तरायन और दक्षिणायन।
*तीन देव :* ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
*तीन देवियाँ :* महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
*तीन लोक :* पृथ्वी, आकाश, पाताल।
*तीन गुण :* सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
*तीन स्थिति :* ठोस, द्रव, गैस ।
*तीन स्तर :* प्रारंभ, मध्य, अंत।
*तीन पड़ाव :* बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
*तीन रचनाएँ :* देव, दानव, मानव।
*तीन अवस्था :* जागृत, मृत, बेहोशी।
*तीन काल :* भूत, भविष्य, वर्तमान।
*तीन नाड़ी :* इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
*तीन संध्या :* प्रात:, मध्याह्न, सायं।
*तीन शक्ति :* इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।
*चार धाम :* बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
*चार मुनि :* सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
*चार वर्ण :* ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
*चार निति :* साम, दाम, दंड, भेद।
*चार वेद :* सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
*चार स्त्री :* माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
*चार युग :* सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
*चार समय :* सुबह,दोपहर, शाम, रात।
*चार अप्सरा :* उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
*चार गुरु :* माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
*चार प्राणी :* जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
*चार जीव :* अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
*चार वाणी :* ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
*चार आश्रम :* ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
*चार भोज्य :* खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
*चार पुरुषार्थ :* धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
*चार वाद्य :* तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।
*पाँच तत्व :* पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
*पाँच देवता :* गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
*पाँच कर्म :* रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
*पाँच  उंगलियां :* अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
*पाँच पूजा उपचार :* गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।
*पाँच अमृत :* दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
*पाँच प्रेत :* भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
*पाँच स्वाद :* मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
*पाँच वायु :* प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
*पाँच इन्द्रियाँ :* आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
*पाँच वटवृक्ष :* सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
*पाँच पत्ते :* आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
*पाँच कन्या :* अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।
*छ: ॠतु :* शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
*छ: ज्ञान के अंग :* शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
*छ: कर्म :* देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
*छ: दोष :* काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य
 छंद :* गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
*सात सुर :* षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
*सात चक्र :* सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार।
*सात वार :* रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
*सात मिट्टी :* गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
*सात महाद्वीप :* जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
*सात ॠषि :* वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
*सात धातु (शारीरिक) :* रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
*सात रंग :* बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
*सात पाताल :* अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
*सात पुरी :* मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
*सात धान्य :* गेहूँ, चना, चांवल, जौ मूँग,उड़द, बाजरा।
*आठ मातृका :* ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
*आठ लक्ष्मी :* आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
*आठ वसु :* अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
*आठ सिद्धि :* अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
*आठ धातु :* सोना, चांदी, तांबा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।
*नवदुर्गा :* शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
*नवग्रह :* सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
*नवरत्न :* हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
*नवनिधि :* पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।
*दस महाविद्या :* काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
*दस दिशाएँ :* पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
*दस दिक्पाल :* इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
*दस अवतार (विष्णुजी) :* मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
*दस सती :* सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।                        🕉

Tuesday, July 14, 2020

श्री तपन घोष

Deva Sarran Samaroo devasamaroo@hotmail.com

Kolkata, July 12 (IANS) Right-wing organisation Hindu Samhati leader Tapan Ghsoh, 67, who had tested Covid-19 positive, died at a city hospital on Sunday.
He was survived by two sisters. According to his associates, Ghosh was admitted to a city-based private hospital last week.
“Tapan Ghosh died this evening. He was one of the most dedicated soldiers fighting for Hindu unity and sangathan in West Bengal,” senior Bharatiya Janata Party (BJP) leader Swapan Dasgupta tweeted.
Dasgupta said Ghosh gave his entire life to the cause, inspiring thousands through personal examples.
“He will always be remembered and provide constant inspiration. Om shanti,” he added.
Ghosh was formerly an RSS pracharak since 1975. Later he had formed Hindu Samhati in 2008, following some ideological differences with the organisation. In 2018, he left Hindu Samhita
Tapan Ghosh (68) passed away of Covid-19 in a private hospital of Kolkata this evening. A fighter of many battles, we hoped he would win this one also. God willed otherwise. Though he might not be with us, in physical form, his spirit will endure for times to come. Some 20/30 years from now, he will be recognized as a Prophet by the grateful Hindus, of Bengal, in particular. He changed the dynamics of Hindu society
To me, he was an incarnation of the revolutionaries of past. I feel privileged to have been blessed by his association since 2005 despite not being part of his any organizational project. May he receive Uttam Gati.
 Tapan da's message to the world - A tribute to my 
I have thoughts of him and how his profound philosophy can be given shape. 

Tapan da's during his lifetime, was deeply influenced by the partition of Bharat. The flow of refugees, the persecution of Hindus in Bangladesh pained him. He joined RSS for the same reason. But when he found that Hindus in West Bengal are still suffering under the Islamists because they are politically divided, he decided to form a separate platform. 
The ideals of the Sangh from the worship of Bharat Mata to the understanding of history was deeply embedded within the organizations that grew around him.

Tapan da stood for two major beliefs. One of One Hindu and the other of a Hindu who can defend and resist.

"One Hindu" An idea that captivated me all along. "One Hindu" means that any Hindu irrespective of race, birth, sampradayas, region we come from, the language we speak, rich or poor will care for each other as brothers and sisters. 

When he saw Hindus divided on political lines, he built up non-political organizations. When he saw Hindus divided on caste lines, he conjured up the idea of Kshatriyakaran. 

He believed that Hindus were One people, who we divided up through 1200 years of slavery by the Islamists and the British. He believed that all Hindus whose ancestors did not surrender to the invaders have remained Hindus and thus proudly call themselves Hindus.

 He believed that there was absolute social mobility in the Varna system that existed before the invaders came. Through the Kshatriyakaran effort, many of the Hindus who call themselves SC, OBCs were actually Kshatriyas who defended Dharma from the onslaught of the defenders but lost. And after they lost they were banished into the countryside , remote villages and jungles. He wanted them to reclaim their honor of being Kshatriyas again. Hence before the Maharana Pratap photo he made them take an oath to protect Dharma, dignity of their mothers and daughters and the civilization . This is an effort to bring about psychological change in the way many would see themselves as being the forefront in the battle against Adharma and saviours of the Hindu civilization.

The Kshatriyakaran effort also means that we now have Kshatriyas to defend Hindus against aggression, loot of Hindu properties and rape of Hindu women, our mothers and sisters by Islamists and Adharmic forces. 

He firmly believed that a Hindu has the right to defend. Has a right to fight brutality. He thus engaged in training people across villages of rural Bengal. While he gave the philosophy, it was presently SinghaBahini President Devdutta Maji who executed his philosophy on ground. It was only when Hindus saw that they could stand their ground, that they could defend the dignity of their mothers and daughters, did they see hope.

This hope that Tapan da could generate strengthened Hindu Unity and helped the Hindus to invite others to join their ranks.

 This what he called Ghar Wapsi - return to the fold. He has done more than 1000 Ghar Wapsis during his lifetime and has inspired many more. He went to the homes of Hindus who fell in love with Muslim girls and married them, convincing parents that by inviting others into the Hindu fold, they children are doing the greatest service to Dharma. Often in case of inter-religious marriage, intolerant Islamists attack and kill the couple. He and Devdutta helped to shelter many such couples in their own home.

I had the honor to assist Tapan da to come to the US and help spread his message of Hindu Unity. When a nameless, faceless Hindu is in trouble, it is our duty to feel their plight and pain. Empathize with them and ensure that their voices are taken to the highest corridors of power. He developed a system that when a Hindu is in trouble, people around the world must call up the authorities to ensure their safety. Like light into darkness.

Light into darkness was the same idea that ensured that the atrocities against the Hindus were heard through social media when all mainstream media refused to bring out those stories. For the first time the world came to know the terrible atrocities that Hindus faced even in rural West Bengal. We were aghast.

Tapan da wanted us to get to the roots of the problem, and helped us decode how the Islamists operated worldwide. So when Yezidis who still believe in Reincarnation like many dharmic people worldwide, were in trouble in Iraq, he gave us the blessings to help them. Thus one Hindu became "One Dharmic People". While Islamists want to isolate populations and exterminate people. He wanted to ensure that most vulnerable populations are taken care. It worked in rural Bengal and it worked in Iraq. With the help of Guruji Sri Sri Ravi Shankar and Mohan Bhagwat ji, the Yezidis were saved.

The role of women was central in Tapan da's vision. Women as spiritually equal to men. Women deserve equal opportunity. Many times the society acts against women because they fail to see that women are spiritually equal and that they can be defenders of the civilization. Hence was born the Women Priest project which was given shape by SinghaBahini President Devdutta Maji. Sister Sulata Mondal became a household name as a priest and Hindu tribal girls did Swaraswati Puja. The project can be scaled up, but Tapan da and Devdutta Maji have shown the way.

Tapan da was also a strong advocate for strong ties between the Hindus and the Jewish people. He said there are lessons to learn from Israel. The greatest being that while Hindus lost their land, generations after generations, it was Jews who have succeeded to regain back their land. 

Thus we need to understand what Israelites have done right.

The ultimate message of Tapan da is spiritual and non-political. It is simple. He firmly believed that Bhagwan resides in all of us, particularly the poor. 

That by serving the poorest of the poor in the community, risking our lives to defend them, true Hindu Unity can be achieved. This Unity can fight Adharma. He lived it and proved it. It is now for the Hindus to take his philosophy to the next level.

EXCERPTS FROM MY MAIL WITH TAPAN DA AND SOME IF HIS FOLLOWERS AND NEWS PRINT
THUS WE PRAY OM  SHANTI OM SHANTI OM SHANTI
DEVA
LONDON

Saturday, May 16, 2020

सौंदर्य लहरी स्तोत्र की जन्म कथा--नरेश चन्द्र मिश्र

आद्यशंकराचार्य जयंती
आद्यशंकराचार्य रचित "सौंदर्य लहरी" स्तोत्र की जन्म कथा !
बात उस वक्त की है, जब आद्य शंकराचार्य के उपर दुर्धर विषप्रयोग किया गया था! असाह्य वेदना से शंकर विव्हल रहे थे! उस वेदना को सहन करते वक्त वो जगतमाँ भवानी को याद करते है! पुकारते है...और उनके मुखारविंद से सौंदर्य लहारीयां स्फुरणे लगती है! एक घन घिरी काली रात जब सारा देश निद्रारूपिणी प्रकृति माँ की गोद में बेसुध था, योगी शंकर ने अपने बाल सुलभ अपराध की स्वीकारोक्ति से माँ के करुण हृदय के तार-तार झंकृत कर दिए। ’सौंदर्य लहरी’ का सौंवा श्लोक पूरा होने से पहले ही जगन्माता ने अपने वरद पुत्र को असाध्य विषप्रयोग से मुक्त कर दिया।

कथा थोडी लंबी है.....जो पढेंगे वो तृप्त हो जायेंगे.....!!!
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"प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण चाहते हो संन्यासी?" तांत्रिक अभिनव शास्त्री का क्रुद्ध स्वर शास्त्रार्थ सभा में गूँजा, तो उपस्थित पंडित वर्ग में छूट रही हल्की वार्ता की फुहारें भी शांत हो गयीं।

"प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं आचार्य, शास्त्रार्थ में प्रत्यक्ष है तर्क और प्रमाण है प्रतितर्क", युवा संन्यासी शंकर आत्मविश्वास भरी हँसी हँस पड़े, "तर्क नहीं तो सारी कल्पना व्यर्थ है, ऐसी स्थिति में पराजय पत्र पर हस्ताक्षर ही उचित होगा।"

"मैं हस्ताक्षर करूँ, पराजय पत्र पर? मदांध युवक।" उत्तरीय झटक कर अभिनव शास्त्री क्रोधपूर्वक त्रिपुंड के स्वेद विन्दु पोंछने लगे। "ये बाहुएँ पराजय पत्र लिखेंगी जिनके द्वारा हवन कुण्ड में एक आहुति पड़े, तो आर्यावर्त में खंड प्रलय का हाहाकार मच सकता है। यह मस्तक पराजय वेदना से झुकेगा, जो अपनी तंत्र साधना के अहम् से त्रिलोक को झुकाने की सामर्थ्य रखता है?"

"स्पष्ट ही यह सारा प्रलाप आहत मान का प्रण भरने के लिए है, आचार्य! किन्तु शंकर को इससे भय नहीं। उसे तो शास्त्रार्थ में पराजित विद्वान से पराजय पत्र प्राप्त करने में ही..."

"दे सकता हूँ, तू चाहे तो वह भी दे सकता हूँ," अभिनव शास्त्री झंझा में पड़े बेंत की तरह काँप रहे थे, "किंतु समस्त पंडित जन ध्यानपूर्वक सुनें, मेरा यह पराजय-पत्र इस जिह्वापटु, तर्क दुष्ट, पल्लव ग्राहि मुंडित के समक्ष तब तक तंत्रशास्त्र की पराजय के रूप में न लिया जाय......."

"कब तक आचार्य श्रेष्ठ?" शंकर के मुख पर अभी भी व्यंग्य की सहस्रधार फूट रही थी। "

"जब तक मेरा तंत्र रक्त से इस पराजय पत्र का कलंक लेख न धो डाले।"

"स्वीकार है, किंतु अभी तो उस ’कलंक लेख’ पर हस्ताक्षर कर ही दें तंत्राचार्य?"

युवक शंकर ने उपस्थित पंडित वर्ग के चेहरे पर अपने लिए त्रास और भय की भावना पढ़कर भी अपना हठ न छोड़ा।

आश्रम का सारा वातावरण पीड़ा और निराशा भरी मृत्यु का साकार रूप बन गया। कुशासन पर पट लेटे योगी शंकराचार्य के मुँह से निकली आह नश्वर सांसारिक वेदना की क्षतिक विजय का घोष कर रही थी। वैद्यों, शल्य शास्त्रियों ने उन्हें देखकर निराश भाव से सर हिला दिया। शास्त्रार्थ में अभिनव शास्त्री का मन मर्दन करने के दूसरे ही दिन भगन्दर का जो पूर्वरूप प्रकट हुआ, वह अब योगी शंकर को असाध्य सांघातिक उपासर्गों के यमदूतों द्वारा धमका रहा था।

"आह...माँ....माँ...." कष्ट से करवट बदलते संन्यासी ने अपनी वेदना का चरम निवेदन ममतामयी जननी के दरबार में करके संसारी पुरुषों-सा रूप प्रकट कर दिया।

"बहुत पीड़ा है गुरुदेव?" संन्यासी के रूप में शंकर के अनुयायी से सुरेश्वराचार्य और गृहस्थ के रूप में विदुषी शारदा के पति कर्मकांडी मंडन मिश्र के नाम से विख्यात एक शिष्य ने सह अनुभूति से पीड़ित हो पूछा।

"पीड़ा नहीं, मृत्यु का साक्षात रूप," वेदना बढ़ी होने पर भी शंकर मुस्करा उठे, "अभिनव आचार्य ने सत्य ही कहा था, किंतु मैंने तंत्र जैसी प्रत्यक्ष विद्या के लिए प्रमाण का हठ किया। अब प्रमाण मिला भी तो ऐसी शोचनीय दशा में जब मैं उसे स्वीकार भी न कर पाऊँगा।"

"क्या रहस्य है गुरुदेव?" चरण-सेवा छोड़कर उत्सुक सुरेश्वर आगे खिसक आये।

"कुछ नहीं। अभिमानी तांत्रिक ने अपनी पराजय का प्रायश्चित कराया है, शंकर से, एकांत वन की गुफा में बैठा वह मारण प्रयोग में लिप्त है।"

"ओह आर्य!" जगद्गुरु के चारों आद्य शिष्य आक्रोशमद पीकर मतवाले हो उठे।

"हाँ आयुष्मानों! तांत्रिक का मारण न सह सका तो यह हंस अब हस्त पिंजर में न रहेगा।"

अन्य तीनों शिष्यों ने तो चिन्ता मग्न हो गुरु चरणों में सर झुका कर विवशता प्रकट कर दी, किंतु चौथा अपने चेहरे पर प्रतिहिंसा की कठोर रेखाएँ छिटकाता वन प्रदेश को चल दिया।
प्रहर भर पश्चात्।

निर्जन वन की उस झाड़-झंखाड़ भरी पहाड़ी गुफा का अंधकार भयंकर चीत्कार से सिहर उठा। शंकर का पुतला बनाकर उसके मर्मस्थानों में लौह कीले गाड़े हुए मारण प्रयोग में रत अभिनव पर प्रतिहिंसा विक्षिप्त शिष्य ने खड्ग का भरपूर प्रहार किया था। कुछ देर पश्चात् रक्त सने शस्त्र से लाल बिन्दु टपकाता वह गुरु के निकट उपस्थित हुआ।

"मैंने उसका शिरच्छेद कर दिया देव", शिष्य ने रक्त सना खड्ग शंकर के चरणों में रख कर हिंसा वीभत्स स्वर में कहा, "उस पिशाच विद्यादक्ष नर राक्षस का यही प्रतिकार........"

"शांतं पापं...ये क्या किया मूर्ख," पीड़ा की अवहेलना कर जगद्गुरु बलात आसन पर उठ बैठे, " तंत्र विद्या-पारंगत उस अकल्मष मनीषी का वध कर तूने भरत खंड के एक नर रत्न का विनाश कर दिया।"

"इस हत्या का प्रायश्चित कर लूँगा गुरुदेव, किंतु आपका शरीर न रहता तो भरत खंड का सद्यः ज्वलित ज्ञान दीप ही बुझ जाता। उस हानि का शोक भला कैसे.....।"

"उस हानि का पातक भी तेरे ही भाग्य में था," करुणा मिश्रित विचित्र हँसी हँस कर शंकर ने कहा, "मारण प्रयोग द्वारा उत्पन्न यह व्रण त्रिलोकी का कोई शल्य वैद्य न पूरित कर सकेगा। अभिनव के जीवित रहते मेरे जीवन की भी क्षीण आशा थी, किंतु तूने उस पर तुषारापात कर दिया।"

पश्चाताप हत शिष्य अवाक् था। संन्यासी शंकर ने उसके मन का दूसरा संकल्प ’अपने ही शस्त्र से आत्मघात’ का आभास पा खड्ग उठा कर अन्य शिष्य को दे दिया।

मर्म विधे पक्षी के पीड़ित डैनों की अन्तिम उड़ान, जगन्माता के अभयकारी आँचल का नीड़। आद्य शंकराचार्य के अन्तर से उठता स्वर आत्मविश्वास में परिवर्तित हो चुका था। एक तांत्रिक के सांघातिक प्रयोग का निवारण उस ’महाभय विनाशिनि, महाकारुण्य रूपिणि’ के अतिरिक्त और कौन कर सकता था! और आत्मविश्वास से प्रेरित योगी शंकर के मुख से मातृ-शक्ति की वंदना के बोल ’सौंदर्य लहरी’ बन कर फूट निकले। जगद्गुरु के एक-एक श्लोक व्रणरोपक लेप बनकर, असाध्य व्रण को भरने लगे।

स्तुतिकार शंकर ने अपनी करुणार्द्र वाणी में पहली बार शक्ति के सहज स्नेहमय रूप को स्वीकार किया और शक्ति के बिना अपने पूर्व प्रतिपादित शिव को ’शव’ के समान अर्थहीन, निस्पंद माना।

और एक घन घिरी काली रात जब सारा देश निद्रारूपिणी प्रकृति माँ की गोद में बेसुध था, योगी शंकर ने अपने बाल सुलभ अपराध की स्वीकारोक्ति से माँ के करुण हृदय के तार-तार झंकृत कर दिए। ’सौंदर्य लहरी’ का सौंवा श्लोक पूरा होने से पहले ही जगन्माता ने अपने वरद पुत्र को असाध्य भगंदर से मुक्त कर दिया।

-----नरेश चन्द्र मिश्र (भारती: अंक ७ फरवरी १९६५ से साभार)

Visiting Frontier Gandhi's Country

Dhirendra Sharma <dhiren.sharma32@gmail.com>
Visiting  Frontier Gandhi's Country

Having overthrown an elected government, General Pervez Musharraf had, at the gunpoint, declared
himself President of the Islamic Republic. But Musharraf was not the first dictator of Pakistan. When I crossed
over the Wagah border, I was visiting my childhood land after five decades.But  I was not in an alien country. The people spoke
familiar dialects, wore the same dress and ate the same food. But political rhetoric of military Raj was evidently
alien. I was heading to Peshawar via Lahore and Rawalpindi. En route I visited the ancient site of Taxila.
American presence in Pakistan notwithstanding, the. Military Raj had produced Atom Bombs but
in a Third World country the motorway was the symbol of modernity and advancement. 
The bus too was made in South Korea but the Video playing in the bus was an Indian Bollywood hit.
I halted at the state Tourism Guest
House outside the Taxila  Museum.  The Archaeological sites dating back to the 5th century B.C. offers a glimpse of rich
Gandhara arts, architecture, sculpture and learning of the Buddhist heritage of the central Asian civilization.
Entire site of this great historical vintage is well preserved and protected by  the armed guards. Security officer's room
was echoing with popular Indian (Hindi) songs.
Looking at the artifacts of  2500 years ancient heritage one wonders what had gone wrong
with the people of this great region. Just a few kms. beyond the Khyber Pass inside Afghanistan, the monumental
structures of the great civilization the Bamian Buddhas had been blown to dust by the Islamist Taliban. A young
curator confirmed unnecessary hostility prevailing towards "Indian civilization". No Pakistani visits the site of
Taxila, but for that matter hardly any Indian had visited Taxila. "For research do you visit the Buddhist sites in
India?" I asked.
"I am working here for 20 years, but have not been to Sanchi, Vaishali or Bodh Gaya. No Indian scholar
had visited us. Nor have we in touch with any Buddhist centre in India," he lamented, but assured me that many
western Europeans and Americans - do frequently visit Taxila to study the ancient Indian history.
In Peshawar, I collected permit to visit the Khyber Pass and a gunman escort was provided for personal
safety. I visited the Afghan refugee camps, and reached the historic Khyber Pass - the passage of invaders to
Bharat-the Gateway to the sub-continent, which Alexander took around 300 BC. The Pass through which came
Babar and Tamur Lang, and the route that allowed the British to colonize India.
 At the height of Khyber every dry stone witnessed the agony of human tragedy:
 one million Afghan (muslim) refugees, mingling, quarreling, living out with peddling drugs, guns and prostituting.
 Two teenage boys offered me bundles of thousands of Taliban Afgani currency for
one-US dollar baksheesh! They don't go to school, and  orphaned during the tragic civil war, Mother and
sisters had disappeared during the Islamic Taliban revolution.
Three local Pathans were enjoying mid-day meal, crossed lags on a clean spread of duree. "Our Indian
guest must break  roti with us". 
Being a vegetarian, politely I excused. But " Tumko kaun bola gosht khane KO?'
friendly Pathan roared and I floored to eat "Chane ki daal, mooli and Peshawri nan". They were  angry with
Musharraf's friendship with the Yankee Bush and equally opposed to the Talibanisation of the region.
 Nearby was an international gun market where one can openly purchase high-powered guns and missiles made in USA,
Russia and China.
At  the Frontier Gandhi's Abode:
Returning to Peshawar, I visited "Wali Bagh" - the country residency of  Dr. Wali Khan, the illustrious son of
the late Frontier Gandhi, Abdul Gaffar Khan. "India had abandoned us", wailed the Khan. He listed Pakhtoon
families who on the Frontier Gandhi's call gave up guns, becoming "Unarmed Red Guard" and marched for Indian
Independence under the command of Mahatma Gandhi. The 15,000 khudai-khidmadgar (volunteers) went to
prisons and carried the Tourch of Freedom in the mountains of North-West Frontier region against the British Raj.
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The Congress Working Committee led by Jawaharlal Nehru accepted the Partition. They did not consider the
future of the Pakhtoom people. They did not consult the Frontier Gandhi. No-reward, or recognition was given to
the sacrifices of the Pakhtoon people. Tagore's Kabuliwalah notwithstanding, New Delhi government had thrown
the Pakhtoons to the wolfs.
Dr.and Mrs. Wali Khan narrated atrocities committed by the Pakistani military dictators upon the helpless
Pakhtoon nation of the North West Frontier. Cry for Freedom in Bangladesh was helped by India but the struggle
of the Pakhtoons was lost in the cold-war strategy as the western powers (US and UK) used Islamabad to crush
aspiration of the Pakhtoon nationalism. But the Frontier Gandhi refused to recognize the Islamic Republic and
willed not to be buried in Pakistan. His last resting place is across the Khyber, in Pakhtooni soil of Afghanistan.
The Frontier Gandhi had spent eight years in prison under the British. But he was incastarated for
eighteen years by Military rulers of Islambad. His son Dr. Wali Khan had spent three years in the British jail but
Pakistani dictators kept him in prison for eight years.

 In the residency of Wali Khan, we visited the Saga of the Indian Freedom Struggle. Thousands of photographs belonging to the 1942 Quit India years of our last Battle of
Independence  led by Mahatma Gandhi  were spread over the  library wall of the  Frontier Gandhi Abdul Gaffar  Khan's residency.
                            
                                                                                 Dhirendra Sharma