Friday, March 31, 2023

The aryabhatta-nilakanta-samanta evolution Book by Kosla Vepa and other books 01-04-2023

    These books NOT disposed till 01-04-2023



    The aryabhatta-nilakanta-samanta evolution

  • Published by-indic study foundation

  • Address-948 happy valley road Pleasanton, CA 94566


    ------------------------------------xxxx----------------------------

solid waste management

Published by-ranjeet s.chavan

Address-Sthanikraj bhavan c.d.barfiwala marg, andheri (west) Mumbai-400058

Email - alisg@bom3.vsnl.net.in

------------------------------------xxxx----------------------------

    Aromatic plants

Published by- Infoconcepts india inc.

Address-A-16,co-op. industrial estate,balangan hydrabad pin-500037.A.P. india

Phone-91-40-23770267

Email - infoconcepts@sancha.net.in

------------------------------------xxxx----------------------------


Monday, March 6, 2023

गोवा अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन विश्वविद्यालय -- प्रस्ताव व सुझाव

गोवा अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन विश्वविद्यालय -- प्रस्ताव व सुझाव  

गोवा सरकार तथा केंद्र सरकार के विचारार्थ 

यथावकाश इसे संस्कारित कर यूएन आदि  अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओंमे भेजा जा सकता है।


खण्ड - १

प्रारंभिक भैतिक सुविधाएँ जो गोवा सरकार की ओर से दी जाएगी - 

१. १०० हेक्टर जमिन

२. निर्माण हेतू हर वर्ष १० करोड का प्रावधान ५ वर्षों तक।

३. निर्माण हेतू गोवा इण्डस्ट्रीयल डेव्हलपमेंट कार्पोरेशन पर उत्तरदायित्व सौंपा जाए।

४. पहले एक वर्ष तक ओएसडी के नेतृत्व मे एक दस व्यक्तियोंकी टीम जो प्रारंभिक सुविधाएँ उपलब्घ होने के लिये काम करेगी। (यही टिम महामहिम को रिपोर्ट किया करेगी)


खण्ड - २

अंतराष्ट्रीय पर्यटन विश्वविद्यालय की आवश्यकता- 

सद्यकाल में पर्यटन एक आवश्यक तथा उभरते हुए व्यापार का मुद्दा बन गया है। जिस प्रकार उत्पादक व्यवसायोंमे व्यवस्थापन विशेषज्ञों की आवश्यक्ता को ध्यान में रखकर IIM जैसी संस्थाएँ बनी या फिर बँकिंग क्षेत्र की आवश्यक्ताओं के लिए बँक ट्रेनिंग संस्थाएँ बनीं,  उस प्रकार   इस पर्यटन क्षेत्रकी आवश्यक्ता के लिए विशेष शिक्षा तथा समर्पक कोर्स की रचना आवश्यक है। ऐसी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति पर्यटनके क्षेत्रको नई दिशाओंमे फैलाकर इस व्यवसाय मे नई क्रांती ला सकते हैं और नये नये प्रयोग कर सकते हैं।

विश्वविद्यालय को अंतराष्ट्रीय बनानेकी क्या आवश्यक्ता है - यह प्रश्न भी पूछा जा सकता है। वैसे तो विश्वविद्यालय शब्दमें ही विश्व निहित है। फिर भी प्रस्तावित विश्वविद्यालय को विशेष रूप से आंतर्राष्ट्रीय बनानेके लिए कारण भी है कि यह विश्वविद्यालय दूर दूर देशों से विद्यार्थी आकृष्ट कर सके और इस प्रकार सही अर्थ में वैश्विक स्तर पर इसकी ख्याति फैले।

औचित्यका मुद्दा इस मुद्देके साथ भी जुडता है कि ऐसा विश्वविद्यालय में भारत में क्यों और गोवा में क्यों ? इसका कारण है। मानव जाती की उत्पत्ति, बौद्धिक विकास और भौतिक प्रगती के इतिहास को देखें तो उत्पत्ति काल करीब एक करोड वर्षका माना जा सकता है। बौद्धिक विकास का काल ३०००० से ४०००० वर्ष का माना जा सकका है। जिस कालमें कई एक संस्कृतियों का उदय हुआ अंत भी। एक भारतीय संस्कृती है जो टिकी हुई है। रामायण महाभारत जैसे ग्रंथों से उनका इतिहास पाँच  सातसे दस हजार वर्ष पूर्व ज्ञात होता है, जबकी भारतमें बौद्धिक संस्कृती कमसे कम दस हजार वर्ष पूर्व की है। पर्यटन की दृष्टी से अति महत्वपूर्ण मुद्दा है कि समय का यह विस्तृत रंगमंच भारत भरमें अपने चिह्न और छाप छोड गया है। गोवा में भी वे सारे वर्तमान है। इस प्रकार गोवा को भी एक ऐतिहासिकता प्राप्त है, दूसरी ओर आधुनिकता भी योग्य और पर्याप्त मात्रामें गोवा के पास है। भौगोलिक वातावरण भी अनुकूल है। इसलिए विश्वविद्यालय आंतर्राष्ट्रीय हो, भारतमें हो और गोवामें हो यह औचित्यपूर्ण है।

खंड-३

पर्यटन की परिकल्पना

पर्यटन एवं घुमक्कडी मनुष्य का स्वभाव भी है और प्रगती के लिये आवश्यक भी। श्री चरक जैसे विद्वान ने बताया कि मनुष्य का व्यक्तित्व चार प्रकार से बनता है- जन्मगत वांशिक तथ्य, पालन-पोषन के दौरान पाये गये संस्कार, स्वबुद्धि का विकास तथा पर्यटन।

आज पर्यटन एक फलता- फूलता व्यवसाय बन गया है। दुनिया सिमट गई है - यातायात की सुविधाएँ पर्याप्त है और ज्ञानलालसा का तो कोई अन्त ही नही। इस कारण विश्वभरमें पर्यटन के लिये आने-जाने वाले पर्यटकों की संख्या में वृद्धि हे रही है। छ़ः साढे छः अरबकी जनसंख्या वाले विश्व में हर वर्ष करीब १ अरब (१०० करोड) आबादी पर्यटन करती है। भारत में प्रतिवर्ष आनेवाले पर्यटकों की संख्या करोडोंमें है, और गोवा मे आने वाले पर्यटकोंकी संख्या भी कई करोड है। इनका थोडासा विश्लेषण आवश्य़क है, क्योंकि उसीसे हमारी प्रस्तावित विश्वविद्यालयके शिक्षा प्रणालीकी रूपरेषा तय होगी।

विश्लेशण के मुद्दे- (हर मुद्दे पर थो़डा विस्तार आवश्यक है)

१. भारतीय और बाहरी

२. समय की उपलब्धी - ४ दिन या ४० दिन अर्थात् अल्पकालिक या दीर्घकालीक

३. सुविधाओ कीं उपलब्धि

४. उद्देश- विश्राम, सैरसपाटे, खाओ पिओ मौज करो, कँसिनो- बार-डान्स-शराब, समुद्र तट, सृष्टी सौदर्य, जलवायु की मौज, प्राचीनता, मंदिर-चर्च, स्थापत्य, खानपान-विशेषता लिया हुआ हर एक प्रांत का खानपान का चलन

५. बच्चोंके हेतु पर्याप्त रूचिपूर्ण क्रियाकलाप जैसे एस्सेल वर्ल्ड - तारांगण - म्युझियम - आदि

६. बच्चों हेतु बहुउद्देशीय शिबिर,  युवाओंके शिबिर, विभिन्न विषयों को समर्पित राष्ट्रीय व आंतर्राष्ट्रीय शिबिर

७. इव्हेंट मँनेजमेंट - उत्सव-व्यवस्थापन - जैसे जत्रा, कार्निवल, शिगमो, नरकासुर-ध्वंस, गिरि-भ्रमण, सांस्कृतिक शोध, पुरातत्व तथा आनुवांशिकता विचार – आर्कियाँलाँजी व अन्थ्रोपोलाँजी

८. लोक कलाएँ --  संगीत, कथा, नाट्य, नृत्य, शिल्प, चित्र, इत्यादि. भाषाएँ - बोली भाषाएँ, लिपी

९. व्रत-तौहार, पारिवारिक व समाजिक प्रसंगोकी शैली, वैज्ञानिकता, भविष्यकालीन दृष्टी एवं विनिर्देश

उपर्युक्त चार विश्लेशण- प्रकारोंपर आधारित और खासकर उद्देशोंपर आधारित पर्यटन व्यवस्थापन कैसे किया जा सकता है- इस मुद्दे को कोर्स सिलँबस के गठन में प्राथमिकता दी जाएगी।

कोर्स के गठन इस प्रकार होंगे-

१. १० वी के आगे डिप्लोमा, स्नातक और स्नातकोत्तर

२. अल्पकालिक कोर्स - १ सप्ताह, २ सप्ताह, १ मास, ३ मास, ६ मास -- साथ ही अलग अलग व्यवसायोँ से जुडे किंतु पर्यटनके लिए आवश्यक व्यवसायोंके साथ (यथा हाँटेल, ट्रान्सपोर्ट, हस्तकला, लोकमंच इत्यादि ) इंटरडिसिप्लिनरी कोर्सेस ३ से ६ मास की अवधी के।



खण्ड ४

रोड मँप-

१. गोवा एवं केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजना

२. गोवा सरकार द्वारा आरंभिक सुविधाए देने की स्वीकृती, कँबिनेट तथा विधानसभा स्तरपर

३. ओ एस डी एवं उनकी टीम का गठन, कार्यालय, बजेट, वाहन व्यवस्था की सुविधा

४. टीम द्वारा भौतिक सुविधाओंका चयन

५. टीम द्वारा कुलपती एवं अन्य प्राध्यापकोंका चयन

६. कोर्स डिझायनिंग

७. GIDC द्वारा विश्वविद्यालय की वास्तू का निर्माण

८. कोर्सेस की संरचना

९. विद्यार्थी रजिस्ट्रेशन

१०. आर्थिक एवं प्रशासकीय ढाँचा तैयार करना

११. प्रत्यक्षतः कोर्सेस का आरंभ

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


Wednesday, March 1, 2023

रमा 18वे शतक मुद्दूपळणी व तिचे काव्य राधिका सांत्वनम्

 भारताचं राज – वैभव लेखांक ५०

मुद्दुपळणी

 डॉ. रमा गोळवलकर

मध्ययुगीन भारताच्या इतिहासाचा धांडोळा घेताना एका ठिकाणी आपण थबकतो. इ.स.

१६७६ च्या युद्धात व्यंकोजी उपाख्य एकोजी शहाजी भोसल्यांची तलवार गाजली आणि

त्यांनी तंजावूरच्या नायकांचा पराभव केला. हे छत्रपती शिवाजी महाराजांचे सावत्र भाऊ.

म्हणजे पराक्रमी शहाजीराजे भोसल्यांच्या दुसऱ्या पत्नी तुकाबाईंचे चिरंजीव. इकडे महाराष्ट्र

आणि उत्तर भारतात छत्रपती शिवाजी महाराज स्वराज्य संस्थापनाच्या कार्यात गुंतले

असतानाच, एकोजीराजे दक्षिण भारत गाजवत होते. एकाच पित्याच्या पोटी दोन स्वतंत्र

आणि सामर्थ्यशाली राजे जन्मावे हे भाग्य आपल्या महाराष्ट्रभूमीला लाभलेलं आहे.

तंजावूरच्या मराठी साम्राज्याचा इतिहास अतिशय काटेकोरपणे सरस्वती महाल या

ग्रंथागारात जतन करून ठेवण्यात आलेला आहे. ही सारी पार्श्वभूमी सांगण्याचं कारण म्हणजे

एकोजीराजे (राज्यकाळ १६७६ ते १६९९) यांनी तेलुगु भाषेत रामायण कथा लिहिल्याचा

उल्लेख त्यांच्या तमिळ चरित्रात येतो. त्यांच्या वंशात शाहूजी राजे (राज्यकाळ १६८४ –

१७१२), सरफोजीराजे प्रथम (रा. १७१२ – १७२८), तुकोजीराजे (रा. १७२८ –

१७३६), एकोजी / व्यंकोजी द्वितीय (रा. १७३६ – १७३७), सुजनाबाई राणीसाहेब (रा.

१७३७ – १७३८), सरफोजीराजे प्रथमचे अनौरस पुत्र म्हणून प्रतापसिंहराजेंना गादीपासून

दूर ठेवत शाहूजीराजे द्वितीय (रा. १७३८ – १७३९) राजे झालेत. १७३६ ते १३९ ही तीन

वर्षं राज्यात प्रचंड अनागोंदी माजली. शेवटी शाहूजी राजांनी पायउतार होत राजे

प्रतापसिंहांना राज्य देऊन टाकलं.

मिळालेल्या संधीचं सोनं करत त्यांनी इ.स.१७३९ ते १७६३ ही चोवीस वर्षं तंजावूरच्या

मराठा साम्राज्यावर राज्य केलं. त्याचा चहूबाजूंनी विस्तार केला आणि तंजावूर मराठा

साम्राज्य अधिक मोठं, बलाढ्य आणि समृद्ध केलं. तर आजची आपली कवयित्री आहे ती या

प्रतापसिंह राजांच्या राणीवशात समाविष्ट असलेली मुद्दूपळणी.

अंदाजे इ.स. १७५० मध्ये, नागवाश्रम (जि. अनकापल्ली, आंध्रप्रदेश) नावाच्या गावी, एका

तेलुगु देवदासीच्या पोटी जन्मलेली मुद्दूपळणी तंजावूर राजदरबारातली एक कलावती

म्हणून सेवा देत होती. तिचं सौंदर्य, चातुर्य, कवित्व, गायन आणि नर्तन या सगळ्याची

भुरळ गुणग्राही प्रतापसिंहांना पडली नसती तरच नवल. ते स्वत:ही एका देवदासीच्याच

पोटी जन्माला आलेले असल्यामुळे त्यांना मुद्दूपळणीच्या व्यवसायाचं वावडं नसावं. त्यांची

आवडती राणी म्हणून वावरताना तिनं तंजावूरच्या कलाजीवनाला अधिक सकस, समृद्ध

आणि संपन्न केलं.


भारतीय संस्कृतीत आराध्य देवतेचं पूजन दोन प्रकारे करण्याची परंपरा आहे. देवाच्या

मूर्तीवर अभिषेकादि षोडशोपचार म्हणजे अंगभोग आणि देवतेच्या मनोरंजनासाठी म्हणून

प्रस्तुत करण्याच्या निष्पादित कला (पर्फोरमिंग आर्ट्स) म्हणजे रंगभोग. त्याकरता या कला

सादर करण्यासाठी लहानपणीच प्रतिभावंत बालक बालिकांना हेरून त्यांना या कलांचं

प्रशिक्षण देण्यात येई. एकाहून एक उत्तमोत्तम कलावंत आणि कलावती या देशात होऊन गेले

ज्यांनी अतिशय तन्मयतेनं आणि निष्ठेनं आपलं सर्वस्व या कलांच्या प्रस्तुतीकरणासाठी

पणाला लावलं. देवतांच्या मनोरंजनाकरता प्रस्तुत करायच्या उदात्त हेतूनं या कलांचा उदंड

विकास या देशात झाला.

काळाच्या ओघात इस्लामी आक्रमणानंतर या प्रथांत अंधश्रद्धा वाढल्या, प्रदूषण आलं, ऱ्हास

झाला, यात दुमत नाही. पण भारतात जितक्या विविध प्रकारच्या लोककला आणि

लोकसंगीत नृत्या सोबतच विविध प्रकारची शास्त्रीय संगीत आणि नृत्यांचे प्रकार आहेत

तितक्या अन्यत्र कुठेच नाहीत. त्या मागचं मुख्य कारण म्हणजे त्यांना मिळालेला संपन्न

मंदिरांचा आणि राजसभांचा आश्रय! त्यामुळे नंतरच्या काळात देवदासीसारख्या प्रथांच्या

माध्यमातून स्त्रियांचं शोषण होत असलं तरी मुळात या कलावतींना समाजात अतिशय मान

होता. या सर्व कलावंत मंडळींनी परंपरेनं या निष्पादित कला जीवापाड जपलेल्या.

या पार्श्वभूमीचा संदर्भ ध्यान घेऊन मुद्दूपळणीचं सुरुवातीचं प्राशिक्षण देवांचा रंगभोग

करणाऱ्या मनोरंजन कलावती म्हणजे देवदासी म्हणून झालं. विविध तालात – लयीत,

विविध रागरागिण्यांच्या आविष्कारात लालित्यपूर्ण पदन्यास, हस्तमुद्रा, भागभंगिमा प्रस्तुत

करण्यात ती निष्णात झालीच. त्याशिवाय तेलुगु, संस्कृत आणि तमिळ या तीन भाषांत

काव्यशास्त्राच्या सगळ्या नियमांचं काटेकोर पालन करत काव्यरचना करण्यात ती पारंगत

होती. गायन आणि वाद्यवादनात तिनं विशेष प्राविण्य मिळवलं होतं. शास्त्रार्थ आणि

वादविवाद करण्यात तिची स्पर्धा कोणीही करू शकत नसे. आणि गणित हे तिचा अत्यंत

आवडता विषय होता. हे सारं रसायनच अजब होतं. तिनं अनेक ‘अष्टावधानी’ प्रदर्शनात

भाग घेत रसिक विद्वानांना तिच्या तीक्ष्ण आणि तेजस्वी बुद्धिमत्तेचा प्रत्यय दिला.

त्या सगळ्याचा एकत्रित परिणाम म्हणजे तिनं रचलेलं शृंगार रसप्रधान तेलुगु काव्य

‘राधिका सांत्वनम्’ अर्थात ‘राधेची मनधरणी’. श्री कृष्ण आणि राधा यांच्या निर्व्याज,

निस्सीम, निश्चल प्रेमाचं एक अलौकिक संमोहन भारतीय कवीला असतंच असतं.

मुद्दूपळणी सारखी विदुषीही त्याला अपवाद कशी असेल? त्यात ती नृत्यांगना, गायिका

आणि अभिनेत्री असल्यामुळे शृंगाररस प्रधानता हे तिच्या सगळ्याच अभिव्यक्तीचा केंद्रबिंदू

होता.

नवयौवन प्राप्त झालेल्या मुद्दूपळणीनं कृष्णभक्तीत नादावलेल्या राधिकेशी अधिक जवळीक

साधत लिहिलेलं हे काव्य. श्रीकृष्णानं इला नावाच्या तरुणीशी विवाह केला आणि राधेचा

मत्सर उफाळून आला या मध्यवर्ती संकल्पनेवर आधारित हे काव्य म्हणजे अनेकानेक


अलंकार, शब्द चमत्कृती आणि अर्थवाही काव्य पंक्तींचा समुच्चय आहे असं अभ्यासक

म्हणतात. अंदाजे इ.स. १७५७ ते १७६३ या कालखंडात रचण्यात आलेलं हे काव्य

प्रतापसिंहराजे भोसले यांच्या राजसभेत नृत्यनाटिका म्हणून प्रस्तुत करण्यासाठी रचण्यात

आलं होतं. त्यामुळे त्यात अनेक नाट्यपूर्ण प्रसंगाची मालिका आहे.

एकूण चार सर्ग असलेल्या या काव्यात पाचशे चौऱ्यांशी शृंगाररसप्रधान कविता आहेत. त्या

काळात प्रसिद्ध असलेल्या संस्कृत कवी आणि क्षेत्रय्या, श्रीकामेश्वर सारख्या तेलुगु – तमिळ

कवींच्या काव्यशैलीचा सुखोल अभ्यास करून मगच कवयित्रीनं या कामाला हात लावला हे

स्पष्टच जाणवतं.

प्राचीन भारतीय विद्वानांपैकी दोन अतिबुद्धिवान व्यास पुत्र महर्षी शुक आणि तत्त्वचिंतक

राजा जनक यांच्यात होणाऱ्या संवादापासून या काव्याची सुरुवात होते. या दोघांच्या

चर्चेचा विषय आहे शृंगारक्रियेत स्त्री पुढाकार घेते का आणि घेते तर कशी? त्या अनुषंगानं

एक कथा येते. कृष्णाची काकी असलेल्या राधेनं लालन पालन करून वाढवलेल्या इला

नावाच्या तरुणीचा विवाह कृष्णाशी करून दिला. लग्नाच्या पहिल्या रात्री नवविवाहितेनं

आपल्या पतीला कसा प्रतिसाद द्यावा आणि पतीनं तिला कसं हळुवार फुलवत न्यावं याची

सविस्तर शिकवणी राधा कृष्ण आणि इलेला देते.

हे सारं सांगत असताना आता कृष्ण इलेचा झाला आणि त्याच्यावरचा आपल्या प्रेमाचा

अधिकार गळून पडला याची जाणीव तिला आतून पोखरू लागते. तो समोर आहे, असणार

आहे पण तो तिचा नसणार ही विरहवेदना तिला असह्य होते. तिचा त्याग केला म्हणून

तिचा त्रागा होऊ लागतो. आणि एका क्षणी ती कोसळते. तिच्या भावनेचा बांध फुटतो. ती

कृष्णाला दूषणं देऊ लागते. त्यावर अतिशय हळुवारपणे कृष्ण तिची समजूत घालतो. अत्यंत

प्रेमानं आपल्या बाहूत भरून घेत तिला शांत करतो. म्हणून या काव्याचं नाव आहे ‘राधिका

सांत्वना’.

मध्ययुगीन तेलुगु भाषेत रचलेलं हे अतिशय धाडसी आणि वेगळ्या धाटणीचं काव्य म्हणून

तेलुगु साहित्याचा इतिहास अभ्यासणारे ओळखतात. एक स्त्री एका पुरुषोत्तमाविषयी तिला

वाटणारी आसक्ती दाबून टाकत नाही. उलट अतिशय धीटपणे तिच्या मनात उत्पन्न

होणाऱ्या नाजूक भावना त्याच्याजवळ व्यक्त करते. त्या आसक्तीचं पर्यवसान म्हणजे स्त्री

सुलभ लज्जा दूर सारत अतिशय आत्मविश्वासानं ती शृंगारक्रीडेत पुढाकार घेते. हे अतिशय

नाविन्यपूर्ण कथाबीज आणि त्यातून बहरलेली ही काव्यलता त्या काळात अभूतपूर्व होती.

हे सारं इतकं अद्भुत होतं की त्या काळात लिहिल्या गेलेल्या तेलुगु काव्यांतला मुकुटमणी

असल्याची साक्ष तेलुगु साहित्याचे तज्ज्ञ म्हणतात. पण भाषिक मर्यादांमुळे याचा

आंध्रप्रदेशाबाहेर फारसा प्रसार झाला नाही. नंतरच्या काळातल्या संकुचित

विचारसरणीमुळे त्यात असलेल्या शृंगार क्रीडेच्या उन्मुक्त वर्णनामुळे या काव्याकडे


तिरस्कारानं पाहिलं जाऊ लागलं. पण चार्ल्स फिलीप ब्राऊन नावाच्या ब्रिटीश अधिकाऱ्यानं

इ.स.१८८७ मध्ये या काव्याची छापील प्रत प्रसिद्ध केली. अर्थात हे करत असताना त्यानं

पैदिपती वेंकटनरसू नावाच्या तेलुगु विद्वानाच्या मदतीनं त्यातल्या त्याला आक्षेपार्ह

वाटणाऱ्या ओळी / कविता गाळून टाकत तळटिपांसह त्याची पहिली आवृत्ती प्रसिद्ध

करण्यात आली. ती लवकरच संपली म्हणून १९०७ मध्ये दुसरी आवृत्ती प्रसिद्ध झाली.

इ.स. १९१० मध्ये मात्र बंगलोर नागरत्नम्मा नावाच्या एका वारांगनेच्या हाती हे संपूर्ण

काव्य लागलं. तिनं ते जसं आहे तसंच छापून नवीन आवृत्ती प्रसिद्ध केली. पण त्या काळाच्या

संकुचित इंग्रजी विचारसरणीला अनुसरून ब्रिटीश सरकारनं त्यावर बंदी टाकली. हे पुस्तक

प्रकाशित करणाऱ्या प्रकाशन संस्थेच्या इतर आठ पुस्तकांवरदेखील ती लागू करण्यात आली.

स्वातंत्र्य मिळाल्यानंतरही कितीतरी दशकं ही बंदी कायम होती.

आठव्या शतकात होऊन गेलेल्या तमिळ कवयित्री अंडाळच्या कृष्णभक्तीच्या शृंगारिक

कविता ‘तिरूपावै’ हा मुधुरा भक्ती चळवळीचा आरंभ होता. तर बाराव्या शतकात होऊन

गेलेल्या ओडिया कवी जयदेवांची संस्कृत गीत गोविंद हा अष्टपदी काव्य प्रकार म्हणजे मधुरा

भक्तीचा चरमोत्कर्ष बिंदू होता. या दोन्ही काव्याचे तेलुगु अनुवाद मुद्दूपळणी राणीनं

केल्याचीही नोंद आहे. शिवाय अष्टपदीसारखीच सप्तपदलु म्हणजे सात ओळींची कविता हा

नवा काव्यप्रकारही आविष्कृत केल्याचा उल्लेख आहे. पण दुर्दैवानं यापैकी काहीच आज

उपलब्ध नाही. ‘राधिका सांत्वनम्’ चा तमिळ अनुवाद मात्र दिल्ली विद्यापीठातील डी. उमा

देवींनी तर इंग्रजी अनुवाद संध्या मुलचंदानी यांनी केला आहे.

रमा -- 16वे शतक मीराबाई

 भारताचं राज – वैभव लेखांक ४८

मीरा डॉ. रमा

गोळवलकर

मध्ययुगीन भारताच्या इतिहासात सर्वात गूढ, अनाकलनीय दंतकथा वाटावी, म्हणूनच

सर्वसामान्यांना भावणारी, त्यांच्या भावविश्वात अढळ पद मिळवणारी अशी अद्भुत

व्यक्तिरेखा म्हणजे चित्तोड साम्राज्याच्या सिसोदिया राजघराण्याची महाराणी मीरा!

मधुराभक्तीच्या चर्मोत्कर्ष बिंदूचा मान मिळवलेली ही राज्ञी, संत कवयित्री म्हणून

जगप्रसिद्ध आहे. तिच्या विषयीच्या अनेक कथा आजही कृष्णभक्तांच्या ओठी आहेत. तिची

कवनं विविध पद्धतीच्या कीर्तन – भजनांचा अविभाज्य घटक आहेत. श्रीकृष्ण भक्त

संप्रदायाच्या भक्तांना संत मीराबाई या नावाचं गारुड आहे. हे सारं असलं तरी तिची जीवन

गाथा सुरू होते राजस्थानमधल्या पालीच्या कुडकी गावातून. मेडतिया राठोड राजवंशाच्या

दूदाजी राठोडांच्या चौथ्या मुलाची रतनसिंहाची ही एकुलती एक कन्या. वर्ष होतं इ.स.

१४९८. योग्य मुहूर्तावर तिचं बारसं करून तिला नाव देण्यात आलं जशोदा राव रतनसिंह

राठोड! पण या नावानं तिला हाक मात्र कोणीच मारली नाही. ती सगळ्यांची लाडकी

‘मीरा’ होती.

ती दोन वर्षांची असतानाच मातेचा मृत्यू झाला अशी नोंद आहे. त्यामुळे, आजोबा दूदासिंह

तिला मेडता गावी घेऊन आले. राजकुमारी म्हणून लहानाची मोठी होताना तिच्या

शिक्षणाची आणि संवर्धनाची जबाबदारी त्यांच्या देखरेखीखाली इतर राजस्त्रियांनी पार

पाडली. असं सांगतात की बालिका असताना वाड्या समोरून जाणारी वरात बघून तिनं

आपल्या संगोपन करणाऱ्या दायीला विचारलं, ‘माझा पती कोण आहे?’ त्यावर दायीनं

तिला मुरलीधर श्रीकृष्णाच्या मूर्तीसमोर उभं केलं आणि हाच तुझा पती आहे अशी समजूत

घातली.

त्या एका वाक्यानं तिच्या आयुष्याला कलाटणी मिळाली. मुरलीधर श्रीकृष्णाच्या मूर्तीलाच

तिनं आपलं सर्वस्व मानलं. उपवर झाल्यानंतर तिचा विवाह चित्तोडच्या सिसोदिया

राजवंशाच्या राणा सांगांचा पुत्र भोजशी लावून देण्यात आला. पण सर्वसामान्य

लोकांसारखा संसार करण्यात मीराला काडीची रुची नव्हती. ती तिच्या भक्तीच्या संसारात

मग्न होती.

सिसोदिया राजघरणं शाक्त संप्रदायाचा अवलंब करणारं तर मीरा कृष्णभक्तीत तल्लीन. तिनं

राजा भोजला आपला पती देखील मानलं नाही कारण तिच्यालेखी तिचा पती म्हणजे तिचा

मुरलीधरच होता. विवाहानंतर सासरी येताना तिनं आपल्या बरोबर मुरलीधराची

मूर्तीदेखील आणली होती. त्या मूर्तीकरता राजा भोजसिंहांनी बांधून दिलेल्या मंदिरातच

तिचं वास्तव्य होतं. तिथेच ती भजन गायची आणि भावविभोर होऊन नृत्य करायची.


या सगळ्या वागण्यामुळे तिनं सासरच्या मंडळींचा रोष ओढावून घेतला. सासू, नणंद आणि

लहान दीर तिघांना तिचं कृष्णप्रेम मान्य नव्हतं. परंपरागत वैवाहिक आयुष्याला दूर सारत

कृष्णभक्ती करण्यात व्यग्र असलेल्या मीरेचा संघर्ष सुरूच राहिला आणि एक दिवस भोज

राजाचा मृत्यू झाला.

त्याच्या प्रेतासोबत हिनं सती जावं म्हणूनही तिच्यावर बळजबरी करण्यात आली पण ती

बधली नाही. त्या काळाच्या प्रथेविरुद्ध वागत ती स्वत:ला सधवाच म्हणून घेत असे. तिनं

तिचे सौभाग्यालंकारदेखील काढून ठेवले नाहीत. तिच्या दैनंदिन जीवनात काडीचाही बदल

न करता ती जीवन जगत होती. कृष्णभक्तीची अभिव्यक्ती आपल्या काव्यातून करण्यात

तिचा बहुतांश वेळ जाई.

या सगळ्या विद्रोही वागण्याला आळा घालण्यासाठी तिच्या सासू – नणंद आणि

भोजसिंहांच्या मृत्यूनंतर राजसिंहासनावर बसलेल्या दिरानं विविध प्रकारे तिला छळण्याचा

चंगच बांधला. या सगळ्यावर उतारा म्हणून तिनं भजनं गायली. त्यात या सगळ्याचा पाढा

वाचला. कधी तिच्या हाराच्या टोपलीत विषारी सर्प ठेवण्यात आला, तर कधी विष

लावलेल्या टोकदार खिळ्यांवर झोपवण्यात आलं. कधी कोंडून उपाशी ठेवण्यात आलं तर

कधी मारहाणही करण्यात आली. त्या सगळ्यातून तावून सुलाखून निघालेल्या मीराबाईला

अखेर राजानं भर राजसभेत एखाद्या अपराध्यासारखं उभं करून सर्वांसमोर विष प्राशन

करण्याची शिक्षाच ठोठावली.

त्या विषाचाही तिच्यावर काहीही परिणाम झाला नाही. पण या प्रसंगानंतर मात्र तिनं

सौभाग्यलेण्यांसह भगव्या परीधानात मुरलीधरासह चित्तोडगढचा अभेद्य दिंडी दरवाजा

ओलांडला आणि ती पायथ्याशी वसलेल्या सामान्य लोकांत येऊन राहिली. तिथे

राजघराण्यांची सारी बंधनं जुगारून देत, सर्वसामान्य प्रजेच्या घोळक्यांत तिचा

कृष्णभक्तीचा उत्सव अखंड होता. विषाचा परिणाम होत नाही हा एक चमत्कारच होता पण

त्याहूनही मोठा चमत्कार होता तो म्हणजे सम्राज्ञी सर्वसामान्यांत मिसळते आणि

त्यांच्यातलीच होऊन राहते. तिच्यातलं दिव्यत्व जाणवलं नाही तरच नवल.

त्या प्रसंगाचं वर्णन करताना मीराबाई लिहून जातात – ‘गढ़ से तो मीराबाई उतरी, करवा ले

नु साथ | गाँव को छोड्यों मीरा मेढ, तो पुष्कर न्हावा जाये ||’ यात करवा या शब्दावर तिनं

श्लेष साधला आहे. करवा या शब्दाचा एक अर्थ काळा म्हणजेच सावळा अर्थात कृष्ण होतो

तर दुसरा अर्थ तोटी असलेला मातीचा लहान घडा किंवा कमंडलू. तिनं जेव्हा आपलं सासर

सोडलं त्यावेळी तिच्या हाती काय होतं तर मुरलीधर आणि एक मातीचा घडा. मेढता गाव

म्हणजे माहेरचाही मोह सोडला आणि आता ती पुष्करच्या दिशेनं निघाली आहे.

राजस्थान मधलं पुष्कर सरोवर आणि क्षेत्र श्राद्धकर्म करण्यासाठी उत्तम असल्याचा निर्वाळा

आपल्या पुराणांत दिलेला आहे. त्यामुळे मीराबाई पुष्करला निघाली आहे याचा अर्थ तिथे

जाऊन स्नान करून तिनं स्वत:चं श्राद्ध केलं असावं . कारण त्याशिवाय संन्यास घेता येणार

नाही. त्यामुळे या भजनात तिला आपलं माहेर सासर आठवतं. पूर्वायुष्यात काय काय घडून

गेलं याकडे तटस्थपणे बघत ती पुष्करच्या दिशेनं वाटचाल करते आहे. ऐश्वर्यात लोळलेली,

लाडाकोडात वाढलेली, राजकन्या म्हणून मिरवलेली, राणी म्हणून वावरलेली मीरा

दुसऱ्यांदा आपलं घर सोडतेय. तिच्या मनात उसळलेला भावनांचा डोंब या भजनात स्पष्टच

दिसतो. इथून खऱ्या अर्थानं तिच्यातली संन्यस्त वृत्ती प्रकटली आणि तिचा आध्यात्मिक

प्रवास सुरू झाला. साधू संतांच्या आणि ज्ञानी लोकांच्या संगतीत ती पुढे पुढेच जात राहिली.

त्यानंतर उत्तरप्रदेशात केलेल्या प्रवासात तिला वाराणसीस्थित रविदास महाराज (१३७७ –

१५२८) या सत्पुरुषांचा अनुग्रह प्राप्त झाला. रामनामाचं धन मिळाल्याचा अनिर्वचनीय

आनंद ती शब्दबद्ध करण्याचा प्रयत्न करते – ‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो| वस्तु

अमोलिक दी म्हारा सत्गुरू | किरपा कर अपनायो ||’

मथुरा, गोकुळ – वृंदावन या सर्व लीला क्षेत्रात फिरून आपल्या पतीच्या म्हणजेच मुरलीधर

कृष्णाच्या अस्तित्वाच्या खुणा शोधत ती मनमुराद भटकली. तो सगळा अनुभव शब्दबद्ध

करत गेली. सगळी आस होती ती आपल्या पतीला प्राप्त करण्याची. यातूनच ‘श्याम मने

चाकर राखो जी, गिरधारीलाल माने चाकर राखों जी || चाकर रहसूं बाग लगासूं नित उठ

दरसण पासूं। बृंदावन की कुंज गलिन में तेरी लीला गांसू ।।’ आणि ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल

दूसरो ना कोई | जाके सर मोरमुकुट मेरो पती सोई ||’ यासारखी भावनेनं ओथंबलेली भजनं

प्रसवली गेली.

त्याच्या प्रेमाच्या उदात्त भावनेत आकंठ बुडलेल्या त्या प्रेमरागिणीला भक्तीच्या क्षेत्रात

आपसूकच प्रवेश मिळाला. काव्याला अध्यात्माची झळाळली प्राप्त झाली आणि त्यातला

गोडवा अधिकच वाढला. ‘रामनाम रस पीजे मनवा | तज कुसंग सत्संग बैठी नित, हरि चर्चा

सुनि लीजे | काम क्रोध मद लोभ मोह को, चित से बहाय दीजे | मीरा के प्रभू गिरीधर

नागर, ताहि के रंग में भीजे |’

हरिरसात चिंब भिजलेली मीरा विरक्तीची एक एक पायरी चढत होती तसा तिचा मार्ग

अधिकच प्रशस्त होत होता. उत्तर भारतातून पावलं गुजराथच्या दिशेनं वळली ती

द्वारकाधीशाच्या ओढीनं. या महान भक्त कवयित्रीनं इहलोकीची यात्रा संपवली ती

द्वारकाधीशाच्या मंदिरातच.

असं म्हणतात की द्वारकाधीशाच्या मूर्तीसमोर मीरा मंत्रमुग्ध होऊन उभी होती. तिचा

कृष्णध्यास इतका पराकोटीचा होता की प्रभासपाटणला समुद्र किनारी वृक्षाच्या छायेत

पहुडलेल्या श्रीकृष्णाच्या उजव्या पायाच्या अंगठ्याला व्याधाचा बाण लागून झालेल्या

जखमेची वेदना तिला जाणवली. त्याच्या उजव्या पायाच्या अंगठ्याला वेदनाशमन

करणाऱ्या औषधीयुक्त चंदनाचा लेप लावण्यासाठी मीराबाई मूर्तीच्या जवळ गेली. बोटावर


लेप घेऊन ती तो मूर्तीच्या अंगठ्याला लावत होती आणि त्याच वेळी तिची प्राणज्योत मूर्तीत

विलीन झाली. ते वर्ष होतं इ.स. १५४७.

एकोणपन्नास वर्षाचं द्वैत निमालं आणि महाराणी मीरा आपल्या पतीच्या अथांग, अविनाशी,

अविकारी, आनंदमय, अद्वैत तत्त्वात विलीन झाली. एका प्रतिभासंपन्न राजकुलीन

कवयित्रीचा हा अद्भुत, विस्मयकारक जीवनपट भारतीय संस्कृतीच्या दिव्यत्वाची प्रचीती

आजही देत आहे.

रमा -- १४व्या शतकाचा थोडा इतिहास व त्यातील कवयित्री राजमहिषी गंगादेवी

 भारताचं राज – वैभव लेखांक ४५

गंगादेवी 

डॉ. रमा गोळवलकर

विविध विषयांवर लेखन करणाऱ्या राज नरपुंगवांच्या मांदियाळीत लेखिका राजस्त्रियांचा

उल्लेख व्हायलाच हवा. म्हणून १४व्या शतकात होऊन गेलेल्या एका कवयित्री

राजमहिषीचा हा परिचय. एका पत्नीनं आपल्या पतीन गाजवलेल्या पराक्रमाची, त्यानं

अपूर्व मिळवलेल्या विजयाची इत्यंभूत घटना संस्कृत महाकाव्यात गुंफलेली आहे.

या राणीचं नाव आहे गंगादेवी आणि तिला तिची प्रजा गांगाम्बिका म्हणून संबोधते. ही

विजयनगर साम्राज्याचे संस्थापक बंधूंपैकी एक, बुक्करायांच्या मोठ्या मुलाची कुमार

कंपण्णाची पत्नी. कोण हे बुक्कराय? प्रत्येक राष्ट्रभक्ताला ज्यांचा इतिहास माहितच असायला

हवा असे दोघे पराक्रमी भाऊ दक्षिण भारतात होऊन गेले. अगदी थोडक्यात त्यांचा वृत्तांत

इथे जाणून घेऊ.

निलगीरीच्या डोंगराळ भागात वाडवडील संगम कुलातील मेंढपाळ म्हणून उपजीविका

करत असले तरी हरिहर उपाख्य हक्कराय आणि बुक्कराय दोघांना योद्धा होण्याची इच्छा

होती. म्हणून ते त्या काळात दक्षिण भारतातील एक अतिशय बलाढ्य साम्राज्य असलेल्या

वारंगळ (सध्या तेलंगण राज्य) च्या काकतीय राजवंशाच्या राजा प्रतापरुद्र राजाच्या सैन्यात

योद्धे म्हणून सहभागी झालेत. आपल्या कार्य कर्तृत्वावर सेनापती पदापर्यंत जाऊन पोहचले.

इ.स. १३२३ मध्ये मुहम्मद बिन तुघलकाविरुद्ध वारंगळच्या लढाईत झालेल्या दुर्दैवी

पराभवानंतर लुटलेल्या संपत्ती आणि बायकांसह (माल – ए – गनिमत = शत्रूचा लुटलेला

माल) या दोघांना गुलाम म्हणून दिल्लीला धाडण्यात आलं. तिथे त्यांना बळजबरीनं

मुसलमान करण्यात आलं.

इ.स. १३२३ ते १३३३ हा दहा वर्षांचा कालावधी दिल्ली सल्तनतीचे गुलाम सैनिक म्हणून

उत्तर भारतात लढाया लढल्यानंतर, त्यांना काहीसं स्वातंत्र्य मिळालं. संधी मिळताच त्यांनी

दिल्लीतून पलायन केलं आणि स्वामी विद्यारण्य सरस्वतींच्या पुढाकारानं इ.स. १३३४ मध्ये

पुन्हा सनातन धर्माचा अंगीकार केला. प्राचीन भारताच्या इतिहासातली ही बहुदा पहिली

घर वापसी होती. आणि स्वामींनी दिलेल्या प्रेरणेतून कर्नाटकात येऊन एक अतिशय

वैभवशाली राज्य स्थापन केलं – विजयनगर! आधी हरिहरराय प्रथमनं इ.स. १३३६ ते

१३५६ ही वीस वर्षं या साम्राज्याची धुरा वाहिली. त्यांच्या मृत्यूनंतर बुक्कराय सम्राट झाले.

इ.स. १३५६ ते १३७७ एकवीस वर्षांत अनेक लढाया आणि युद्ध लढत त्यांनी विजयनगर

साम्राज्याचा विस्तार दक्षिणेत थेट रामेश्वरमपर्यंत केला.

त्यांची मुले कुमार कंपण आणि हरिहर (द्वितीय) हेही पराक्रमाच्या बाबतीत आपल्या काका

आणि वडिलांचा वारसा पुढे चालवणारे. त्यामुळे त्यांनीही पित्याच्या सैन्याचं नेतृत्व करत


अनेक लढाया जिंकल्या. त्यापैकीच एक म्हणजे इ.स. १३७१ मध्ये मदुराईच्या

सुल्तानशाहीला पूर्णपणे पराभूत करणारं युद्ध. त्या युद्धात विजयनगर साम्राज्याच्या सेनेचा

कर्णधार होता कुमार कंपण्णा.

विजेत्या कुमार कंपण्णाची गृहलक्ष्मी म्हणजे आजची आपली कवयित्री गंगादेवी! ज्या

साम्राज्याची महाराणी काव्य शास्त्र विनोद जाणणारी असते ते साम्राज्य सांस्कृतिक आणि

शैक्षणिक दृष्ट्या किती संपन्न असेल याची कल्पना करा. राजमहिषी म्हणजे पट्टराणी

गंगादेवीचं माहेर तेलंगणाचं राजघराणं. म्हणजे तिची मातृभाषा तेलुगु होती. पण तिनं

काव्य मात्र संस्कृत भाषेतून केलं आहे.

या काव्याचं नाव आहे ‘मधुरा विजयम्’ किंवा ‘वीरकम्पराय चरित्रम्’. यात एकूण ९

अध्याय आहेत ज्यात सुरुवातीचे काही अध्याय हे सम्राट बुक्कराय आणि साम्राज्ञी देवयी

म्हणजे कवयित्रीचे सासूसासरे यांचा जीवन परिचय करून नंतर आपल्या पतीचा

कम्पण्णाचा जन्म वृत्तांत आहे. त्या नंतरच्या अध्यायांत त्याची जडणघडण कशी झाली हे

सांगून त्याचे गुणवर्णन आहे. त्यानंतर त्यानं जिंकलेल्या लढाया आणि केलेलं राजकारण याचं

विवरण आहे.

कम्पण्णारायानं दक्षिण भारत इस्लामी आक्रमकांच्या राजवटीतून मुक्त करण्याचं कार्य

अतिशय निगुतीनं पार पाडलं. त्यांच्या काळात पडलेल्या मंदिरांचे जीर्णोद्धार करणं, बंद

करून ठेवलेली मंदिरांची डागडुजी करून त्यात पूजाअर्चा पुन्हा सुरू करणं, या सगळ्या

मंदिरांच्या उत्पन्नाची वहिवाट पुन्हा सुरळीत करणं इत्यादी कामं त्यानं विनाविलंब

करण्याचा धडाका लावला. कांचीपुरंचं मंदिर पुन्हा सुव्यवस्थेत आणल्यानंतर

कम्पण्णारायाला साक्षात देवी कामाक्षीनं दृष्टांत देत तिचं खड्ग आशीर्वाद म्हणून दिला

असल्याचा प्रसंग या काव्यात अतिशय प्रभावीपणे रंगवण्यात आला आहे.

त्यानंतरच मदुराई म्हणजेच मधुरेचं मीनाक्षी मंदिर देखील परदास्यातून मुक्त करण्याची

मोहीम त्यानं हाती घेतली. मदुराईवर राज्य करणाऱ्या क्रूर, अत्याचारी मुसलमानी

राजवटीचा पूर्ण पाडाव करून तिथे पुन्हा सनातनी हिंदू राज्य स्थापन करण्यात आलं. या

सगळ्याचा काव्यबद्ध इतिहास म्हणजेच गंगादेवी रचित ‘मधुरा विजयम्’ किंवा

‘वीरकम्पराय चरित्रम्’.

सगळ्या घडामोडीत गंगादेवीनं आपल्या पतीसोबत सक्रीय सहभाग घेतला होता. तिनं

इतर महिलांना या अत्याचारी राजवटीविरुद्ध संघर्ष करण्यासाठी प्रवृत्त केलं होतं. तिनं

घोड्यावर बसून खड्ग उपसून प्रत्यक्ष युद्धात पराक्रमही गाजवला होता. त्यामुळे या युद्धाची

एकूण एक घडामोड तिनं ‘याचि देही याचि डोळा’ अनुभवली. प्रत्यक्ष अनुभवांना काव्यबद्ध

केलं असल्यामुळे हा त्या कालखंडाचा आणि त्या प्रांताचा इतिहास नोंदवलेला एक सबळ

पुरावा आहे.


मुख्य म्हणजे ‘हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर’ या पुस्तकाचे लेखकद्वय सुशील कुमार डे

(१८९० – १९६८) आणि सुरेंद्रनाथ दासगुप्ता (१८८७ – १९५२) या काव्याविषयी

लिहिताना एक मुद्दा प्रकर्षानं मांडतात. ते म्हणतात – ‘या काव्यात ज्या कवींचा आदरपूर्वक

उल्लेख करण्यात आलेला आहे त्यांचा काळ निश्चितच या कवयित्रीच्या आधीचा आहे हे सिद्ध

होतं. तसंच यात येणाऱ्या घटना, प्रसंग, व्यक्ती आणि तथ्य यांचा ताळमेळ मुहम्मद बिन

तुघलक बरोबर भारतात आलेला मोरक्कोच्या प्रवासी लेखकानं इब्न बतुतानं लिहून ठेवलेल्या

समकालीन नोंदींशी तंतोतत जुळतात. त्यावरून हे काव्य असलं तरी त्यात आलेल्या

तथ्यांचा कुठेही ऱ्हास किंवा विपर्यास केलेला नाही हेही स्पष्ट होतं.’

अर्थात या काव्याचा नायक म्हणजे कवयित्रीचा पतीच आहे आणि त्याचं वर्णन करताना

काही बाबतीत अतिशयोक्ती अलंकार वापरण्यात आलेला. पण त्या काळच्या भौगोलिक,

सांस्कृतिक, राजकीय, सामाजिक, आर्थिक, संसाधनांविषयी यथार्थ वर्णन करण्यात आलेलं

आहे.

काव्यशास्त्राचे सगळे नियम तंतोतंत पाळून विदग्ध वैदर्भी शैलीत रचलेलं हे काव्य, विविध

ऋतूत आणि दिवसाच्या विविध प्रहरात दिसणाऱ्या निसर्गसौंदर्याचं अतिशय रसाळ वर्णन

करणारे श्लोक आहेत. आपल्या काव्याच्या सुरुवातीलाच ही कवयित्री कविकुलगुरु

कालिदासांना नमन करताना म्हणते -

‘दासतां कालिदासस्य कवय: के न बिभ्रति | इदानीमपि तस्यार्थानुपजीवन्त्यमी यत: ||’

(कोणते कवी कालिदासाचं दास्यत्व धारण करत नाहीत बरं? त्यानं लिहिलेल्या काव्यवर

आपली उपजीविका करणारे म्हणजे त्याच्या लेखनकार्यावर स्वत:च्या लेखनाची भूक

भागवणारे लोक आजही आहेत.)

या महान कवीनं प्रशस्त केलेल्या काव्य मार्गावर मार्गक्रमण करणाऱ्या अनेक कवींपैकी तीही

एक आहे असं म्हणायलाही ती विसरत नाही. तिच्यावर कालिदासाचा प्रभाव स्पष्ट

जाणवतो. कालिदासाच्या काव्यशैलीचा चांगलाच अभ्यास करून स्वत:च्या काव्यशैलीत

त्याचा प्रभाव तर जाणवू द्यायचा पण अभिव्यक्ती मात्र स्वतंत्रच असावी हा तिचा कटाक्ष

आहे. याचं उदाहरण म्हणजे हे हे दोन श्लोक आहेत. या पैकी पहिला कालिदासाच्या ‘रघुवंशा’

त राजा दिलीपाच्या गर्भवती पत्नीचं सुदक्षिणेचं वर्णन करणारा आहे.

‘शरीरसादादसमग्रभूषणा मुखेन सालक्ष्यत लोध्रपाण्डुना | तनु प्रकाशेन विचेय तारका प्रभात

कल्पा शशिनेव शर्वरी ||’ (शरीर कृश झाल्यामुळे जिने आपली आभूषणं काढून ठेवलेली आहे

ती लोध्रपुष्पाप्रमाणे फिकट कांतीची दिसत होती. जणू प्रकाश क्षीण झालेल्या चंद्रामुळे

तुरळक नक्षत्र दिसायला लागलेल्या मावळणाऱ्या मलूल रात्रीसारखी दिसत होती.)


तर दुसरा कवयित्री गंगादेवी चा - ‘स सेनां महतीं कर्षन् पूर्वसागरगामिनीम् | बभौ हर जटा

भ्रष्टां गङ्गामिव भगीरथ: ||’ (पूर्व दिशेने आपली सेना घेऊन जाणारा तो शंकराच्या जटेतून

खाली येणाऱ्या गंगेला (आपल्या मागे) घेऊन जाणाऱ्या भगीरथाप्रमाणे भासत होता.)

कालिदासाप्रमाणे चपखल उपमा देणं हे गंगादेवीचं मुख्य वैशिष्ट्य. यात राजाची उत्साहानं

फोफावत पूर्व दिशेला पुढे जाणाऱ्या सेनेला शंकराच्या जटेतून अनिर्बंध कोसळणाऱ्या गंगेची

उपमा गंगादेवी देते. या शिवाय दंडी, भवभूती सारख्या संस्कृत कवींच्या काव्यकर्तृत्वाचा

आदरपूर्वक उल्लेख करून बिल्वमंगल ठाकूर ‘लीलाशुक’कृत ‘कृष्ण करुणामृत’च्या काव्य

शैलीचीही स्तुतीही करते. याचा अर्थ या कवयित्रीनं या सगळ्या कवींच्या रचनांचा

व्यवस्थित अभ्यास केला आणि त्यांच्या सगळ्या वैशिष्ट्यांचा समावेश आपल्या काव्यात

करण्याचा प्रयत्नही नक्कीच केला आहे.

गंगादेवी नंतर होऊन गेलेल्या संस्कृत कवींनी तिच्या काव्यप्रतिभेची भरभरून स्तुती केली

आहे. तर काहींनी तिच्या काव्याला प्रमाण मानून त्यासारखी रचना करण्याचा प्रयत्न

केल्याचं दिसतं. उदाहरणार्थ सुमतीन्द्र मठाचे मठाधिपती मध्वाचार्य, राघवेंद्रस्वामीन् यांच्या

कार्याचा गौरव करणारं नारायण कवी रचित राघवेंद्रविजय या १७ व्या शतकात रचलेल्या

काव्यावर ‘मधुरा विजयम्’ किंवा ‘वीरकम्पराय चरित्रम्’ च्या काव्यशैलीचा थेट प्रभाव

असल्याचं दाक्षिणात्य संस्कृत विद्वानाचं मत आहे.

इ.स. १९१६ मध्ये, या काव्याचं भूर्जपत्रावर लिहिलेलं एकसष्ट पानांचं एक हस्तलिखित

तिरूअनंतपुरंच्या पंडित श्री एन रामस्वामी शास्त्रींच्या संग्रहालयात सापडलं. जवळपास

पाचशेच्या वर श्लोक असलेल्या या हस्तलिखित काव्याची अवस्था अतिशय जीर्ण होतीच

शिवाय त्याची पानं देखील मागे पुढे लागलेली. आणि ते आणखी एका हस्तलिखिताच्या

पानांत मिसळलेलं अशा अवस्थेत सापडलं. त्यातले शेवटचे काही श्लोक गहाळ झालेले होते.

त्यावरूनच जी. हरिहर शास्त्री आणि व्ही. श्रीनिवास शास्त्रींनी त्याची संशोधित आवृत्ती

सिद्ध करून त्याचं छापील पुस्तक प्रसिद्ध करण्यात आलं. आणि तेच सध्या उपलब्ध आहे.

नंतर तिरूअनंतपुरंमध्येच आणखी दोन आणि लाहोरमध्ये एक अशी तीन हस्तलिखितं

सापडली असल्याची नोंद आहे.

तर अशी ही योद्धा – विदुषी – कवयित्री गंगादेवी उपाख्य गंगाम्बिका म्हणजे प्राचीन

भारतीय संस्कृतीतील बहुविधा स्त्री शक्तीचं मूर्तिमंत उदाहरणच आहे.