Sunday, May 16, 2021

हठयोग के आचार्य गुरु गोरखनाथ

 हठयोग के आचार्य गुरु गोरखनाथ जी महाराज

गोरखनाथश् या गोरक्षनाथ जी महाराज ११वी से १२वी शताब्दी के नाथ योगी थे। गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर मे स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पडा है। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है।
इन्हें चैरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है। गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, श्महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?श् गोरखनाथ ने उसी
तरह रोते हुए कहा, श्क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।श् इस पर राजा ने कहा, श्हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।श् गोरखनाथ बोले, श्तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।श् गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया। कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यही दिखे थें। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मुर्ती भी है। यहाँ हर साल वैशाख पुर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे रोट महोत्सव कहते है और यहाँ मेला भी लगता है। हिन्दू धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना के अन्तर्गत विभिन्न सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों में प्रमुख स्थान रखने वाले नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति आदिनाथ भगवान शिव द्वारा मानी जाती है। शिव से जो तत्वज्ञान मत्स्येन्द्र नाथ ने प्राप्त किया उसे ही शिष्य बन कर शिवावतार महायोगी गुरु गोरक्षनाथ ने ग्रहण किया
महाकालयोग शास्त्र में स्वयं शिव ने कहा है-श्अहमेवास्मि गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत! योग-मार्ग प्रचाराय मयारूपमिदं धृतम्श्। भारतीय धर्म साधक-सम्प्रदायों की पतनोन्मुख और विकृत स्थिति के दौर में वामाचारी तांत्रिक साधना चरम पर थी। तब पंचमकारों का खुल कर प्रयोग होता था। भोगवाद शीर्ष पर था। ऐसे समय में महायोगी गोरक्षनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। उनका मानना था कि
सिद्धियों का प्रयोग सर्वजन हिताय के लिए ही होना चाहिए। उनके आचार सम्बन्धी उपदेश योग के सैद्धान्तिक अष्टांग योग की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक हैं। नाथ पंथी योगी महायोगी गुरु गोरक्षनाथ को चारों युगों में विद्यमान, अयोनिज, अमरकाय और सिद्ध महापुरुष मानते हैं। उन्होंने भारत के अलावा तिब्बत, मंगोलिया, कंधार, अफगानिस्तान, नेपाल, सिंघल को अपने योग महाज्ञान से आलोकित किया। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार गोरक्षनाथ सतयुग में पेशावर, त्रेता में गोरखपुर, द्वापर में हरमुज (द्वारिका) और कलियुग में गोरखमढ़ी (महाराष्ट्र) में आविभरूत हुए। जोधपुर नरेश महाराजा मानसिंह द्वारा विरचित श्श्रीनाथ तीर्थावलीश् के अनुसार प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में कंकण बंधन गुरु गोरक्षनाथ की कृपा से ही हुआ था। यद्यपि वैदिक साधना के साथ समानान्तर रूप से प्रवाहित तांत्रिक साधना का समान रूप से शैव, शाक्त, जैन, वैष्णव आदि पर प्रभाव पड़ा, तथापि उनसे सदाचार के नियमों का पालन यथाविधि नहीं हो सकता। चतुर्दिक फैले हुए अनाचार को देख कर गोरखनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार किया। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास को लिखना पड़ा- गोरख भगायो जोगु, भगति भगायो लोगु। भक्ति को भगाने वाले संबोधन से तात्पर्य कदाचित
साकारोपासना से है। गुरु गोरखनाथ की भक्ति मुख्य रूप से केवल गुरु तक सीमित है। उन्होंने भक्ति का कहीं विरोध नहीं किया। तुलसी दास के कथन से एक बात स्पष्ट है कि यदि गोरखनाथ जी न होते तो संत साहित्य न होता। गुरु गोरक्षनाथ और नाथ पंथ की योग साधना एवं क्रिया कलापों की प्रतिक्रिया ही सभी निगरुण एवं सगुणमार्गी सन्तों के साहित्य में स्पष्ट होती है। उस प्रतिक्रिया के प्रवाह में प्राचीन जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म, अस्पृश्यता, ऊँचनीच का भेदभाव मिट गया। योग मार्ग के गुह्य सिद्धान्तों को साकार करके जन भाषा में व्यक्त एवं प्रचलित करना गोरखनाथ जी का समाज के प्रति सबसे बड़ा योगदान था। उनके विराट व्यक्तित्व के कारण ही अनेक भारतीय तथा अभारतीय सम्प्रदाय नाथ पंथ में अन्तर्मुक्त हो गए। उनके योग द्वारा सिद्धि की प्राप्ति संयमित जीवन और प्राणायाम से परिपक्व देह की प्राप्ति, अन्त में नादावस्था की स्थिति में दिव्य अनुभूति और सबसे समत्व का भाव आदि विशिष्टताओं ने तत्कालीन समाज एवं साधना पद्धतियों को अपने में लपेट लिया। यही कारण था कि जायसी ने गुरु गोरक्षनाथ की महिमा में कहा- श्जोगी सिद्ध होई तब जब गोरख सौ भेंटश्। कबीर ने भी गोरक्षनाथ जी की अमरता का वर्णन इस प्रकार किया- श्कांमणि अंग विरकत भया, रत भया हरि नाहि। साषी गोरखनाथ ज्यूं,अमर भये कलि माहिश्।। गोरखनाथ जी एवं नाथ सन्तों का ज्ञान किसी शास्त्र-पुराण नहीं अपितु सहज लोकानुभव और लोक व्यवहार का था, जिसे वह जी और भोग रहे थे क्योंकि ब्रह्मचर्य, आसन, प्राणायाम, मुद्राबन्ध, सिद्धावस्था के विविध अनुभव ऐसा कुछ भी नहीं जिसके व्यवहार को छोड़ कर शास्त्र का आधार लेना पड़े। उनका लोकानुभव यज्ञ और पण्डित, ऊंच-नीच आदि की विभाजक रेखा नहीं खींचता। वह मनुष्य मात्र के लिए है। गोरखनाथ जी द्वारा विर्निदिष्ट तत्वविचार तथा योग साधना को आज भी उसी रूप में समझा जा सकता है। नाथ सम्प्रदाय को गुरु गोरक्षनाथ ने भारतीय मनोवृत्त के अनुकूल बनाया। उसमें जहाँ एक ओर धर्म को विकृत करने वाली समस्त परम्परागत रूढि़यों का कठोरता से विरोध किया, वहीं सामान्य जन को अधिकाधिक संयम और सदाचार के अनुशासन में रख कर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए योग मार्ग का प्रचार-प्रसार किया। उनकी साधना पद्धति का संयम एवं सदाचार से सम्बन्धित व्यावहारिक स्वरूप जन-जन मे ंइतना लोकप्रिय हो गया था कि विभिन्न धर्मावलम्बियों, मतावलम्बियों ने अपने धर्म एवं मत को लोकप्रिय बनाने के लिए नाथ पंथ की साधना का मनचाहा प्रयोग किया।नाथ पंथ की योग साधना आज भी प्रासंगिक है। विभिन्न प्रकार की सामाजिक-शारीरिक समस्याओं से मुक्ति दिलाने में सक्षम
Guru Gorakhnath ji (गुरु गोरखनाथ जी)
सिद्ध गोरक्षनाथ को प्रणाम
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अचम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।'
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।
नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।
गोरखनाथ जी की जानकारी
Om Siva Goraksa Yogi
गोरक्षनाथ जी
नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं।
1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूऑ के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडु में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडु में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।
4.वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की 'गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ' में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।
5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपवाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये।
6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।
7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने।
8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।
9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।

सुजीत भोगले भाग्यलक्ष्मी देवी

 #ब्रह्ममुहूर्तचिंतन 

भाग्यदालक्ष्मीबारम्मा नम्ममामि 


काल मी एक राजा भय्या यांचा व्हिडियो शेअर केला होता. त्यात त्यांनी हैदराबाद मधील त्यांच्या कार्याचा परिचय दिला. थोडा त्यापूर्वीचा इतिहास मी सांगतो. कुली कुतुबशहाने सोळाव्या शतकात भाग्यनगरचे हैद्राबाद केले. चारमिनार बनवला मक्का मस्जिद बनवली. भाग्यनगरीची ग्रामदेवता म्हणजे भाग्यलक्ष्मी देवी. हैद्राबाद किंवा भाग्यनगरला असलेली समृद्धी मुस्लिमांच्या भाषेत बरकत जी आहे त्याला कारण ही देवी आहे. सतराव्या शतकात निजामशाही आली. निजाम हे आधीच्या राजवटीपेक्षा अधिक क्रूर होते. त्यांच्या धार्मिक उन्मादाने समस्त हिंदू त्रस्त झाले. 


त्याकाळात हैद्राबादचे प्रवेशद्वार म्हणजे चारमिनार होते. एका पहाटे त्या दारावरील रक्षकाला एक अत्यंत सुंदर स्त्री जिने भरपूर दागिने ल्यायले आहेत नगरीच्या दारातून बाहेर जाते आहे असा भास झाला. त्याने तिला तत्काळ अडवले. तू कोण आहेस आणि तू कुठे जाते आहेस असे विचारले ? देवीने त्याला सांगितले मी या नगरीची भाग्यदेवता आहे. हा निजाम आपल्या प्रजेवर खूप अत्याचार करतो आहे हे मला पहाणे शक्य नाही म्हणून मी हे नगर सोडून जाते आहे. 


मुस्लीम रक्षक असला तरीही नगराची भाग्यदेवता सोडून जाणे याचा अर्थ त्याला समजला. त्याने विनवणी केली, मी आमच्या निजामाला जाऊन सांगून येतो तू तोवर इथून जाऊ नकोस. देवीने मान्य केले. तो रक्षक धावत निजामाकडे गेला आणि त्याने निजामाला झोपेतून उठवून हे सारे सांगितले. त्याचे सांगणे संपताक्षणी त्या निजामाने त्याचे मस्तक उडवले. रक्षक परत जाणार नाही. देवी पण नगर सोडणार नाही, विषय संपला. त्या देवीचे शिळारूप चारमिनारच्या एका स्तंभाला खेटून आहे. भाग्यलक्ष्मी हैद्राबादची भाग्य देवता म्हणून तिची त्या शिळारुपात पूजा होत असे. पुढे स्वातंत्र्य मिळताच तिथे मूर्ती स्थापन झाली. हैद्राबादमधील प्रत्येक नागरिकाची श्रद्धा आहे की ती जोवर तिथे आहे हैद्राबादला बरकत आहे. 


२०० वर्षाची निजामशाही त्या मंदिराला हात लावू शकली नाही. ओवेसी ब्रदर्सचा गेली कित्येक वर्षे भाषणातून वारंवार धमकी देतात आम्ही ते मंदिर उध्वस्त करू. त्या मंदिराला कोणीही हात लावू शकला नाही. आज सुद्धा हैद्राबाद मध्ये हिंदू अल्पसंख्याक किंवा ५० / ५० असतील. पण त्या मंदिराला कोणीही हात लावू शकत नाही. तुम्ही चारमिनारचा कोणताही फोटो पहा. चौथा खांब दिसेल असा फोटोच नाही कारण तिथे या देवीचे मंदिर आहे.


एरवी नित्य चेपला जाणारा हैद्राबाद मधील हिंदू या मंदिराच्या बाबतीत कडवट आहे याची प्रत्येक मुस्लिमाला जाणीव आहे. निजामांना सुद्धा होती. या मंदिराला हात लागला तर आपण संपू ही साधार भीती आहे. त्यामुळे अक्षरशः चारही बाजूंनी पाच किलोमीटर च्या परिघात हिंदू लोकसंख्या १० % सुद्धा नसेल मंदिर “डंके की चोट पे” सुरक्षित आहे. ही धार्मिक श्रद्धेची ताकद असते. 


आपला आणि मुस्लिमांचा संघर्ष धार्मिक आहे. त्यामुळे आपल्या धार्मिक प्रतीकांना उध्वस्त करणे हेच त्यांचे प्राथमिक उद्दिष्ट असते. त्यांचे संरक्षण हे आपले उद्दिष्ट असते. पण काही ठिकाणी हे सगळेच गणित उलट होते. जिथे हिंदू अल्पसंख्यांक होऊ लागतो तिथे ही प्रतीके अस्मितेचे स्वरूप होऊन जातात. यांना हात घातला तर पेटणारी आग हाताळण्याचे धाडस आपल्यात नाही हे मुस्लिमांना सुद्धा मान्य करून गप्प बसावे लागते. ही दहशत हैद्राबादच्या हिंदूंनी कायम ठेवली आहे. राजा भय्या आज आहे. पण गेली कित्येक दशके हैद्राबाद मध्ये गणेश विसर्जनाची मिरवणूक निघते त्या मार्गावरील सगळ्या मशिदी पूर्ण नखशिखांत झाकून टाकल्या जातात कारण गुलाल हा त्या भागातून जाताना तर आवर्जून काही टन उडवला जातो. 


दंगली होतात आणि दंगलीत सुद्धा हिंदू पूर्ण ताकदीने प्रतिकार करतात आणि म्हणून अल्पसंख्यांक असून सुद्धा तिथे हिंदू सुरक्षित आहे. आज राजा भय्या जे करतो आहे त्याचा पाया तेथील हिंदूंनी खूप आधीपासून घालून ठेवला आहे. 


हैद्राबाद मध्ये एक मोठा तलाव आहे. मुस्लीम लोक त्याला हुसेन सागर म्हणतात कारण ते मोहरम चे ताबूत त्या तलावात विसर्जित करतात. हिंदू गणेश तलाव म्हणतात कारण ते गणेश विसर्जन त्या तलावात करतात. यांच्यातील त्या नावावरून सुद्धा भरपूर डोकी फुटली आहेत म्हणून सरकार ने तिथे मोठी बुद्ध मूर्ती उभी केली पण नावे अजूनही तीच वापरली जातात. 


सांगण्याचा मुद्दा हा आहे की धर्मरक्षण करायचे असेल तर रक्षण करायला प्रतिक लागते आणि ते प्रतिक आपली श्रद्धा व आपले अस्तित्व ज्याच्याशी एकरूप होऊ शकेल असे असावे लागते. हिंदूंचा द्वेष करणारा कोणीही असला तरीही तो मूर्तीरुपी प्रतीके, उपासना पद्धती यांच्या बद्दलच प्रश्नचिन्हे उपस्थित करतो कारण ही मूर्त प्रतीके आहेत ज्यांच्यावरील श्रद्धा डळमळीत झाली की तेथील हिंदूंना वश करणे सोपे जाते. 


नेमके हे षड्यंत्र समजून घेण्यात आजचे हिंदुत्ववादी अपयशी होत आहेत. त्याला कारण आहे macalay चे गेले २०० वर्षात मिळालेले शिक्षण. मूर्तींच्या आणि मंदिरांच्या पलीकडे जाऊन आम्ही नवीन प्रतीके देऊ आणि आम्ही धर्म संरक्षण करू आणि सर्व हिंदू बांधवांना एकत्र आणू हा अट्टाहास ते करत आहेत. 


माझा मुद्दा सोपा आहे ज्या प्रतिकांनी आजही हिंदू बांधून ठेवला आहे ज्या प्रतिकांनी हिंदू आजही कोणतीही जात असली तरी त्याच्या पलीकडे जाऊन घट्ट जोडला गेला आहे तेच प्रतिक वापरा . अजून वेगळी शोधण्यात वेळ आणि उर्जा घालवता कशाला ??? 


त्यांचा असा गैरसमज आहे की दारिद्र्य लोकांना धर्मांतराला उद्युक्त करते. काही अंशी हे ठीक आहे. परंतु असे धर्मांतर किती स्थिर आहे हे तुम्ही जमिनीवर जाऊन पाहिले आहे का ? 


Rice bag conversion कागदावर होत असते. त्याच्या व्यावहारिक उपयोग तोवर शून्य असतो जोवर त्यांच्यात जाऊन एखादा पाद्री त्यांना लढायला उचकवत नाही.डॉक्टर आंबेडकर आणि त्यांच्या लक्षावधी अनुयायी मंडळींनी धर्मांतर केले. काय परिणाम झाला. माझ्या परिचयात असे बौद्ध व्यक्तीचे घर नाही ज्याचा घरात स्वामी समर्थ किंवा आपल्या एखाद्या गुरूचा फोटो नाही, गणेशाची किंवा देवीची मूर्ती वा फोटो नाही. अन्य देवांच्या जोडीला अजून दोन देव जोडले गेले बुद्ध आणि आंबेडकर. 


गेल्या ६० वर्षातील प्रचार त्यांच्या डोक्यातून हिंदू धर्म, संस्कार आणि आपले देव काढू शकला नाही. फेसबुक वरील प्रसिद्ध व्यक्तिमत्व आहेत जे बौद्ध आहेत. प्रकट मध्ये पण तसेच दाखवतात. पण मला सांगतात लग्न झाले पाच वर्ष होऊन गेले मुल होत नव्हते. काळूबाईला जाऊन आलो मगच सगळे मार्गी लागले. हे एक नाही अशी शेकड्यांनी उदाहरणे देतो अशी बौद्ध मंडळी ज्यांनी धर्मांतर केले आणि आज त्यांना साक्षात्कार होतोय गपचूप जाऊन आपल्या कुलदेवतांचे आणि परंपरांचे पालन करत आहेत. गावातील जत्रेत जात आहेत तिथे जत्रेतील असलेला परंपरागत आपापल्या जातीचा मान घेत आहेत आणि त्यात अभिमान सुद्धा बाळगून आहेत. वास्तव जीवनातील हे कटू सत्य ज्ञात असल्यानेच बौद्ध हे इस्लाम पेक्षा जास्त हिंदूंचा द्वेष करतात आणि भाऊ कदम यांच्या सारखे प्रकार घडतात किंवा सोशल साईट वर सुद्धा हिंदू द्वेष करणारे बहुसंख्य लोक आपल्याच घरातील हे हिंदू धर्मपालन बंद करू शकत नाहीत  


आजही गावातील जत्रा, यात्रा याच गोष्टी समस्त गावाला एकत्र आणतात संपूर्ण गाव जातीभेद विसरून एकजीव होऊन काम करतो. गावाचे कार्य संपले की जातीभेद आणि आपापसातील मारामाऱ्या सुरु. आजही कुठेही भंडारा असेल , सत्यनारायण असेल, गणपती असेल तिथे सर्वांना मुक्त प्रवेश असतो. सगळेजण एकत्र येऊन आनंदाने तो प्रसंग साजरा करतात. 


पंढरीची वारी करणारे लक्षावधी सर्वजातीय वारकरी कोणतेही आमंत्रण नसताना, कोणतेही प्रलोभन नसताना खिसा तर इतका फाटका कि दर्शन घेतल्यावर जेमतेम गावी परत जाण्याचे बस चे पैसे असतात अश्या अवस्थेत सुद्धा गेली ७०० वर्ष ही धर्माचीच पायवाट तुडवत आहेत. त्या निमित्ताने भेदाभेद अमंगळ हे जिवंतपणे अनुभवत आहेत.  


आपल्याला जर धर्म कार्य करायचे असेल, आपल्याला आपल्या संपूर्ण समाजाला जातीभेद विसरून जाऊन एकत्र आणायचे असेल, जर आपल्याला आपल्या संपूर्ण समाजाला एकत्र आणून भविष्यातील संघर्षासाठी सिद्ध करायचे असेल तर हे संपूर्ण नेटवर्क तयार आहेच ना. 


तुम्हाला फक्त तुमच्या आणि त्यांच्या मेंदूतील ब्रिटिशांनी घातलेला विघटनाचा विचार जो त्यांच्या शिक्षणातून तुमच्या मेंदूत झिरपला आहे तो बाजूला सारायचा आहे. आपोआप ती ताकद उभी रहाते. त्या माध्यमातून निर्माण होणारी ताकद चिरकाल टिकते आणि तिचा समाजावर अधिक सखोल परिणाम होतो. 

  

धर्म रक्षणार्थ हिंसा ही संकल्पना कशी विकसित झाली याचे माझे चिंतन सांगतो. 


मी नेहमीच म्हणतो की एक विशिष्ट पात्रता तुम्ही अर्जित केली की वैश्विक चेतनेकडून तुम्ही ज्ञान मिळवण्यास पात्र होता. मग त्याला आपण शब्दबद्ध करताना वेदांच्या रुपात करतो, पैगंबर कुराणच्या रुपात आणि ख्रिस्ती बायबलच्या रूपाने पण प्रोसेस सेम आहे. आता या प्रोसेस मध्ये तुम्हाला सगळे काही समजावून सांगितले जात नाही. तुमच्या मनातील प्रश्नाला बीजमंत्राच्या सारखे एक अक्षरी किंवा फार तर फार एखादा शब्द या रुपात ज्ञान दिले जाते. विस्तार तुम्ही करायचा. 


आता सर्वच धर्मातील विचारवंतांना धर्म रक्षण किंवा विस्तार करण्यासाठी सुद्धा एकच शब्द/ धातू मिळाला हिंस हा तो धातू. त्याचा अर्थ इस्लाम आणि ख्रिस्ती धर्माने कसा काढला ? तर धर्माचे रक्षण आणि प्रसार करायचा असेल तर हिंसा करणे आवशयक आहे आणि मग त्यात कोणताच विधिनिषेध बाळगण्याची गरज नाही. या विचाराचे प्रकटीकरण त्यांच्या धर्मग्रंथात आणि नंतर कृतीत झाले आहे. जो जगाचा इतिहास आहे. त्यांनी धर्माला बळाच्या वापरातून विस्तारणे शीरगणती आणि भूमी वाढवणे असे राजकीय स्वरूप दिले. मूळ विचाराचा हा विस्तार त्यांच्या प्रवृत्तीचे प्रकटीकरण आहे जी एखाद्या तरसाच्या किंवा जंगली कृत्यांच्या टोळीची असेल. 


त्याचे कारण या धर्मांचा उदय ज्या कालखंडात आणि क्या भौगोलिक परिस्थितीत झाला त्या परिस्थितीत त्यांच्या प्रेषितांवर त्या सर्व परिस्थितीचाच प्रभाव होता. त्यामुळे त्यांनी धर्माला शब्दबद्ध करताना टोळ्यांची मानसिकता समजून घेऊन त्याला शब्दबद्ध केले. याचा परिणाम जगासमोर आहे. 


तरस आणि जंगली कुत्र्यांची वृत्ती असल्याने या धर्मांनी स्वतःचे प्रार्थनास्थळ बनवताना सुद्धा नवीन बनवले किंवा बांधले नाही. ज्यांची संस्कृती , ज्यांचे मंदिर उध्वस्त केले ते विजयप्रतिक मानून त्यालाच ते लोक पूजतात. 


हिंदू धर्मातील विचारवंत शुद्धत्वाच्या परम अवस्थेला प्राप्त होते त्यांना सुद्धा हिंस हाच धातू मिळाला. त्यांनी त्याला विरुद्ध प्रत्यय करून सिंह केले. त्या सिंहाला सुद्धा त्यांनी देवीचे वाहन केले. 


सिंहारूढ देवी प्रकट कधी होईल ? देव संपूर्ण पराभूत झाल्यावर. 


का प्रकट होईल? तर दुष्टांचा विनाश करून सज्जनांचे रक्षण करण्यासाठी. 


कशी प्रकट होईल ? चित्ताच्या अग्निकुंडात तुम्ही सर्व कामनांची आहुती दिल्यावर. 


आपल्या ऋषींनी समाजाला फुलप्रूफ सिस्टीम दिली आहे. क्षत्रियांना धर्म म्हणून जी चौकट आखून दिली आहे त्यात हिंसा समाविष्ट आहे. पण अशी आंधळी निरंकुश हिंसा करण्याची त्यांना परवानगीच नाही. त्यानं नैतिक चौकट सुद्धा दिली आहे की संघर्ष आणि हिंसा करताना सुद्धा संयम कुठे आणि कसा बाळगावा. 


पण या सगळ्यामुळे आपले धर्मरक्षक क्षत्रियांना मानसिक पातळीवर प्रचंड असे नैतिक अधिष्ठान प्राप्त होते ज्याच्या बळावर लढणारा योद्धा हा अफाट पराक्रम करू शकतो कारण त्याच्या लढ्याला ईश्वरी अधिष्ठान प्राप्त आहे.


वृत्ती या पातळीवर सुद्धा आपल्या धर्माने या योद्ध्यांना तुम्ही सिंह आहात याची जाणीव करून दिलेली आहे. सिंह खुल्या मैदानात शिकार करतो आणि तेच अन्न खातो. तरस आणि जंगली कुत्री ही टोळीने असतात आणि ते घात लावून , दगा करून भक्ष्य मिळवतील किंवा मेलेले जनावर खातील किंवा सिंहाने मारलेल्या आणि भक्षण केलेल्या उष्ट्या अन्नाला संपवतील. 


इस्लाम आणि ख्रिस्ती धर्माचे विस्तार करतानाचे वर्तन नेमके तसेच आहे. आपल्यात अल्पसंतुष्टी हा दोष निर्माण झाला आणि त्यामुळे सिंह असूनही आपण आपले जंगल राखू शकलो नाही. ज्या देशात अश्वमेध यज्ञ परंपरा होती तेथील राजे अल्पसंतुष्ट झाल्याने त्यांना ना राज्य राखता आले ना धर्म. हा दोष आपण समजून घेतला पाहिजे. धर्मविस्तार आपण करणार असलो तर आपण तो सिंहाच्या वृत्तीनेच केला पाहिजे हे पण आपण समजून घेतले पाहिजे. 


सिंह या प्राण्याचेच प्रतिक का दिले आहे त्याचे पण कारण सांगतो आणि देव पराभूत झाल्यावर दुर्गा का प्रकटते ते पण सांगतो. सिंहाला शिकार करताना पहा. संपूर्ण तयारी टोळीतील मादी करते. सिंह फक्त अंतिम घाव घालतो. त्यात सुद्धा सिंह दिवसातील बहुसंख्य वेळ झोपेत घालवतो परंतु तो एकदा जागृत झाला की त्याच्यासमोर जंगलात कोणीही उभा राहू शकत नाही म्हणून त्याला जंगलाचे राजेपद दिले आहे. सिंह म्हातारा झाला तरीही स्वतःची शिकार स्वतःच करेल. त्याला कधीही तरस किंवा जंगली कुत्र्यांच्या सारखे वागणे जमणार नाही. त्यामुळे या प्राण्यांच्या टोळ्या असल्या तरी एकटा सिंह त्याना भारी पडतो. कारण त्याला स्व क्षमतेची सार्थ जाणीव आहे. 


आपली एक हिंदू म्हणून असलेली ही स्वक्षमतेची जाणीवच ब्रिटीश शिक्षणातून नष्ट झाली आहे. म्हणून आपण आजच्या जीवनात समस्यांनी ग्रस्त आहोत. आपल्याला परत एकदा कोणीतरी तू सिंह आहेस हे आत्मज्ञान देणे आवश्यक आहे. हे कार्य धर्मच करू शकतो. ही ठिणगी धर्मच टाकू शकतो. धर्माचे आत्मज्ञान स्वरूप हे नेत्याला माहिती असणे पुरेसे आहे अनुयायी मंडळी प्रतीकांना पुजून आणि त्यांच्या रक्षण व समृद्धीसाठी लढण्यास उद्युक्त होतात हा इतिहास आहे. 


हे सर्व मर्म छत्रपती शिवाजी महाराजांनी आत्मसात केले होते आणि म्हणून त्यांनी मावळ्यांमध्ये ते स्फुल्लिंग निर्माण केले. तीनशे मावळे दहा हजार जणांच्या फौजेला छाती काढून सामोरे जाऊ लागले. 


कारण त्या दहा हजार जणांसमोर एक युद्ध जिंकून बायकांवर बलात्कार करणे आणि लुट करणे हे उद्दिष्ट होते. काफिरांना मारून त्यांच्या बायका भोगणे आणि त्यांची संपत्ती लुटणे हे त्यांचे धर्म कार्य होते जे त्यांच्या तरस प्रवृत्तीला पूर्ण साजेसे होते.


या उलट त्यांच्याशी लढणारे मावळे आई भवानीचे, महादेवाचे अनुयायी म्हणून लढायला उभे राहात होते. त्यांच्या चित्तातील अग्निकुंड प्रज्वलित झालेले होते. या लढाईत आम्ही जिंकू किंवा मरू पण शत्रूला अद्दल घडवू मरेपर्यंत लढू आणि आम्ही हे ईश्वरी कार्य करतो आहोत त्यामुळे याचे फळ म्हणून आम्ही स्वर्गातच जाणार आहोत. 


हा संपूर्ण दृष्टीकोन बदल धर्मासाठी लढाई करताना घडतो. परिणाम डोळ्यासमोर आहे. पेशवे आणि नंतरचे छत्रपती कर्तुत्वात कमी पडले नसते तर आज हा देश हिंदूपदपादशाही झाला असता. परंतु छत्रपती शिवाजी महाराजांनी ही नेमकी ठिणगी कशी प्रज्वलित केली हे ज्ञात असल्याने राजा भय्या असेल , योगीजी असतील किंवा अन्य कोणीही धर्मकार्यार्थ उभा राहिलेला कट्टर हिंदू महाराजांना आदर्श मानतो कारण त्यांच्या मार्गावर चालणे निश्चित यश देणारे आहे, आणि तोच सनातन मार्ग आहे. 

   


तुम्ही जे कार्य करणार आहात त्यासाठी अंतर्मन जागृत होणे आवश्यक आहे ही जागृती धार्मिक श्रद्धांच्या आणि परंपरांच्या माध्यमातून साधणे अधिक सोपे आणि सुलभ आहे. नेमका हा मुद्दा आजचे संघटन बनवताना आपण लक्षात घेत नाही. आपण सांस्कृतिक संघटन सारखे गोंडस शब्द वापरतो आणि मग लक्षावधी अनुयायी असूनही तरस आणि जंगली कुत्र्यांच्या पुढे आपण कमकुवत पडतो. 


म्हणून माझे उद्दिष्ट धर्म या पातळीवर आपण एक येणे, धर्मातील अद्वैत सिद्धांत या सगळ्या जातीयवादी विचारसरणीला तर्क या पातळीवर संपूर्ण उध्वस्त करू शकतो. एकदा हे अद्वैत मनात रुजले की भेदाभेद अमंगल हे पण पुनरुज्जीवित होते आणि मग समस्त हिंदूंचे ऐक्य हे स्वप्न न रहाता सत्यात उतरते. 


धर्म आणि तर्क या पातळीवर ज्यावेळी एखादा विचार आत्मसात होतो तो चिरकाल टिकतो. वारकरी संप्रदायात जात नाही. तिथे ते जातीभेद , लिंगभेद किंवा वयाचा भेद न मानता एकमेकांच्या पाया पडतात कारण एकमेकांच्या देहात असणाऱ्या त्या ब्रह्मतत्वाला त्यांनी केलेले ते वंदन असते. जातीभेद मुक्त सर्वसमावेशक असे समाजाच्या एकत्रीकरणाचे वारकरी मॉडेल डोळ्यापुढे असताना सुद्धा आपण अन्य प्रतीकांच्या मागे का धावतो आहोत हे अनाकलनीय आहे. 


मान्य आहे या संपूर्ण यंत्रणेचे एक शुद्धीकरण, नुतनीकरण आवश्यक आहे. पण ते करणे हे नवीन काही निर्माण करण्याच्या पेक्षा अधिक सोपे आहे. अन्य धर्मियांच्या धर्मान्धतेशी लढायचे असेल तर तुम्हाला धर्माचा आधार आवश्यक आहे इतकेच नाही तर धर्म या संकल्पनेला बाजूला ठेवून लढाई अपयशी होण्याची शक्यता जास्त आहे. 


या लेखाबद्दल एक आक्षेप येऊ शकतो की मी धर्म आणि त्यातून मिळणारी चेतना आणि त्यामुळे होत असलेले मंदिरे आदींचे संरक्षण हे मुद्दे मांडत असलो तरीही सोरटी सोमनाथ इतक्या वेळेस लुटले गेले आहे अन्य मंदिरे उध्वस्त झाली असे कसे? या देशात लक्षावधी मंदिरे होती आणि आहेत त्या पैकी उध्वस्त केलेली किती आहेत ? संख्येच्या प्रमाणात विचार केला तर हे नगण्य आहे. याचा अर्थ काही ठिकाणी स्थानिक पातळीवर आपले लोक लढण्यात कमकुवत ठरले असा होतो. इस्लामी राज्यकर्त्यांनी कितीही क्रूरपणा केला तरीही ते संपूर्ण देशातील हिंदूंना धर्मांतरित करण्यात अपयशी ठरले. 


याउलट पर्शियामध्ये शरणार्थी म्हणून १०० इस्लामी कुटुंबांनी आश्रय घेतला आणि १०० वर्षांनी संपूर्ण इराण मुस्लीम राष्ट्र झाले होते.  


आपण धर्माच्या बळावर टिकलो आहोत आणि धर्मकार्य करायचे आहे हिंदू एकत्र आणायचे आहेत या नावाखाली धर्माच्या पायाला हात घालू नका.. आपल्या कडे व्यवस्था अस्तित्वात आहे तिचेच शुद्धीकरण करा आणि समाजाला अधिक चैतन्यमय करा.


पटले तर घ्या नाहीतर सोडून द्या... 


©सुजीत भोगले.