Monday, June 21, 2021

त्रियुगीनारायण मंदिर रुद्रप्रयाग

 इसी पृथ्वी पर विद्यमान है वह जगह जहांँ साक्षात् भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था।

-- उत्तराखंड का त्रियुगीनारायण मंदिर ही वह पवित्र और विशेष पौराणिक मंदिर है। इस मंदिर के अंदर सदियों से अग्नि निरंतर प्रज्वलित है।

 शिव-पार्वती जी ने इसी पवित्र अग्नि को साक्षी मानकर विवाह किया था। यह स्थान रुद्रप्रयाग जिले का एक भाग है।👇

-- त्रियुगीनारायण मंदिर के बारे में ही कहा जाता है कि यह भगवान शिव जी और माता पार्वती का शुभ विवाह स्थल है।👇

-- मंदिर के अंदर प्रज्वलित अग्नि कई युगों से जल रही है इसलिये इस स्थल का नाम त्रियुगी हो गया यानी अग्नि जो तीन युगों से जल रही है। 

-- त्रियुगीनारायण हिमावत की राजधानी थी। यहांँ शिव -पार्वती के विवाह में विष्णु ने पार्वती के भाई के रूप में सभी रीतियों का पालन किया था जबकि ब्रह्मा इस विवाह में पुरोहित बने थे। 

--उस समय सभी संत-मुनियों ने इस समारोह में भाग लिया था। विवाह स्थल के नियत स्थान को ब्रह्म शिला कहा जाता है जो कि मंदिर के ठीक सामने स्थित है। इस मंदिर के माहात्म्य का वर्णन स्थल पुराण में भी मिलता है। 

-- विवाह से पहले सभी देवताओं ने यहांँ स्नान भी किया और इसलिये यहांँ तीन कुंड बने हैं जिन्हें रुद्र कुंड, विष्णु कुंड और ब्रह्मा कुंड कहते हैं।

 -- इन तीनों कुंडों में जल सरस्वती कुंड से आता है। सरस्वती कुंड का निर्माण विष्णु की नासिका से हुआ था और इसलिये ऐसी मान्यता है कि इन कुंड में स्नान से संतानहीनता से मुक्ति मिल जाती है।

-- जो भी श्रद्धालु इस पवित्र स्थान की यात्रा करते हैं वे यहांँ प्रज्वलित अखंड ज्योति की भभूत अपने साथ ले जाते हैं ताकि उनका वैवाहिक जीवन शिव और पार्वती के आशीष से हमेशा मंगलमय बना रहे। 

-- वेदों में उल्लेख है कि यह त्रियुगीनारायण मंदिर त्रेतायुग से स्थापित है जबकि केदारनाथ व बदरीनाथ द्वापरयुग में स्थापित हुए। 

यह भी मान्यता है कि इस स्थान पर विष्णु भगवान ने वामन  अवतार लिया था। 

-- पौराणिक कथा के अनुसार इंद्रासन पाने के लिये राजा बलि को सौ यज्ञ करने थे, इनमें से बलि 99 यज्ञ पूरे कर चुके थे।

 तब भगवान् विष्णु ने वामन अवतार लेकर रोक दिया जिससे कि बलि का यज्ञ भंग हो गया। यहांँ विष्णु भगवान् वामन देवता के रूप में पूजे जाते हैं।

वागर्थाविवसंपृक्तौ वागर्थपरिपत्तये

जगत्पितरौ वंदे पार्वतीपरमेश्वरौ

Sunday, June 20, 2021

China's War on India 2020

 

Monday, June 14, 2021

पुरुष सूक्त-शिवेंद्र

 पुरुष सूक्त :-

वेद में भगवान नारायण का ही विराट् और परम पुरुष के रूप में वर्णन किया गया है । 

उसी विराट् पुरुष को कभी ब्रह्म, कभी नारायण, कभी परम पुरुष, कभी प्रजापति तो कभी धाता-विधाता कहा गया है । 

इस विश्व के असंख्य प्राणियों के असंख्य सिर, आँख और पैर उस विराट् पुरुष के ही सिर, आँख और पैर हैं । सभी प्राणियों के हृदय में वही विराजमान हैं, और वह विराट् पुरुष ही समस्त ब्रह्माण्ड को सब ओर से घेर कर, दृश्य-अदृश्य सभी में व्याप्त है 

प्राणियों में जो कुछ भी बल, बुद्धि, तेज एवं विभूति है, सब परमेश्वर से ही है । उसी में सब देवों, सब लोकों और सब यज्ञों का पर्यवसान (अंत) है । 

उस के समान न कोई है, और न कोई उस से बढ़ कर है। जो-जो भी ऐश्वर्य-युक्त, कान्ति-युक्त और शक्ति-युक्त वस्तुएं है, वह सब उस के तेज के अंश की अभिव्यक्ति हैं।

इसलिये मनुष्य के लिये जितने भी आवश्यक पदार्थ हैं, सब की याचना परमात्मा से ही करनी चाहिये, किसी अन्य से नहीं । 

उस हृदय में स्थित परम पुरुष का जो मनुष्य निरन्तर अनुभव-स्मरण करता है, उन्हीं को सदा के लिए परमानन्द की प्राप्ति होती है ।

पुरुष सूक्त (हिन्दी अनुवाद सहित)


पुरुष सूक्त ऋग्वेद के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त है । यजुर्वेद (३१।१-१६) में भी पुरुष सूक्त का वर्णन किया गया है । 


वेद-मंत्र ही नहीं, कोई भी मंत्र या प्रार्थना बिना अर्थ समझे यदि पढ़े जायें, तो वे फलदायी नहीं होते हैं। 


इस वैदिक प्रार्थना के महत्व और अर्थ को समझ कर ही, उस का पूरा लाभ उठाया जा सकता है ।


ॐ सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात् ।


स भूमिँ सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशांगुलम् ।। १ ।।


अर्थ :- परमात्मा अनन्त सिरों, अनन्त चक्षुओं (नेत्रों) और अनन्त चरणों वाले हैं । 


वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि को सब ओर से व्याप्त कर के, दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं, अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उस के बाहर भी व्याप्त हैं ।


पुरुष एवेदम् सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।


उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।। २ ।।


अर्थ :- यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया, और जो आगे होने वाला है, यह सब वे परम पुरुष ही हैं । 


इस के अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सब के भी ईश्वर हैं । अर्थात् जो कुछ हुआ है, या जो कुछ होने वाला है, सो सब परम पुरुष अर्थात् परमात्मा ही है ।


एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुष: ।


पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।। ३ ।।


अर्थ :- यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुष का वैभव है । वे अपने इस विभूति- विस्तार से भी महान् हैं । उन परमेश्वर के चतुर्थांश (एकपाद्विभूति) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है । 


उन की शेष त्रिपाद्विभूति में वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि शाश्वत दिव्यलोक हैं । 


अर्थात् यह सारा ब्रह्माण्ड उन की महिमा है। वे तो स्वयं अपनी महिमा से भी बड़े हैं। उन का एक अंश ही यह ब्रह्माण्ड है। उन के तीन अविनाशी अंश तो दिव्यलोक में हैं।


त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष: पादोऽस्येहाभवत् पुन: ।


ततो विष्वं व्यक्रामत्साशनानशने अभि ।। ४ ।।


अर्थ :- त्रिपाद्विभूति में उन परम पुरुष का स्वरूप नित्य प्रकाशमान है, क्यों कि वहां माया का प्रवेश नहीं है । 


इस विश्व के रूप में उन का एक पाद ही प्रकट हुआ है, और इस एक पाद से ही वे समस्त जड़ और चेतन रूप समस्त जगत् को व्याप्त किये हुए हैं । 


अर्थात् चार भागों वाले विराट् पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार समाहित है, व इस के तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं ।


ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुष: ।


स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ।। ५ ।।


अर्थ :- उन्हीं आदि पुरुष से ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ । वे परम पुरुष ही ब्रह्माण्ड के अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) के रूप में प्रकाशित हुए । 


ब्रह्माण्ड-देह से जीव उत्पन्न हुए। बाद में उन्होंने भूमि (लोक) और शरीर (देव, मानव, तिर्यक शरीर) उत्पन्न किये। 


उन से ही ऋतु, यज्ञ, पशु, छन्द, अन्न, मेघ, जाति, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, अग्नि, वायु, स्वर्ग, अंतरिक्ष आदि की उत्पत्ति हुई ।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् ।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।। ६ ।।

अर्थ :- जिस में सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञ से उस विराट् पुरुष ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये । 

इस मन्त्र में यज्ञ का यज्ञपति भी वही ब्रह्म बताया गया है ।

एकाक्षरी श्लोक -- क

 एक ही अक्षर से बना श्लोक 

कः कौ के केककेकाकः

काककाकाककः ककः।

काकः काकः ककः काकः 

कुकाकः काककः कुकः॥

अर्थात्- 

परब्रह्म (कः) [श्री राम] पृथ्वी (कौ) और साकेतलोक (के) में [दोनों स्थानों पर] सुशोभित हो रहे हैं।

 उनसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में आनन्द निःसृत होता है।

 वह मयूर की केकी (केककेकाकः) एवं काक (काकभुशुण्डि) की काँव-काँव (काककाकाककः) में आनन्द और हर्ष की अनुभूति करते हैं।

 उनसे समस्त लोकों (ककः) के लिये सुख का प्रादुर्भाव होता है। उनके लिये [वनवास के] दुःख भी सुख (काकः) हैं।

 उनका काक (काकः) [काकभुशुण्डि] प्रशंसनीय है।

 उनसे ब्रह्मा (ककः) को भी परमानन्द की प्राप्ति होती है।

 वह [अपने भक्तों को] पुकारते (काकः) हैं।

 उनसे कूका अथवा सीता (कुकाकः) को भी आमोद प्राप्त होता है। 

वह अपने काक [काकभुशुण्डि] को पुकारते (काककः) हैं और उनसे सांसारिक फलों एवं मुक्ति का आनन्द (कुकः) प्रकट होता है।

🙏😊

४९ मरुत वर्णन

   

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि *वेदों में वायु की 7 शाखाओं के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है*। 


अधिकतर लोग यही समझते हैं कि वायु तो एक ही प्रकार की होती है, लेकिन उसका रूप बदलता रहता है, जैसे कि ठंडी वायु, गर्म वायु और समान वायु, लेकिन ऐसा नहीं है। 


*दरअसल, जल के भीतर जो वायु है उसका वेद-पुराणों में अलग नाम दिया गया है और आकाश में स्थित जो वायु है उसका नाम अलग है।


 अंतरिक्ष में जो वायु है उसका नाम अलग और पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है।


 नाम अलग होने का मतलब यह कि उसका गुण और व्यवहार भी अलग ही होता है। इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।*


*ये 7 प्रकार हैं-*


*1. प्रवह,*

*2.आवह,*

*3.उद्वह,*

*4. संवह,*

*5.विवह,* 

*6.परिवह* 

*7.परावह।*

 

1. *प्रवह* : 


पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है।


 इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। 


धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। 

 

2. *आवह* : 


आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।

 

3. *उद्वह* : 


वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है।

 इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है। 

4. *संवह* : 

वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। 

उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।

5. *विवह* : 

पांँचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है। 

6. *परिवह* :

 वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।

7. *परावह* : 

वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं

   *इन सातो वायु के सात -सात गण हैं जो निम्न जगह में विचरण करते हैं-*

 ब्रह्मलोक, इंद्रलोक, अंतरिक्ष, भूलों की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक कि दक्षिण दिशा।

 इस तरह  7 7=49।

 कुल 49* मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं।

Friday, June 11, 2021

दंडवतेंना दंडवत..अनुपम कांबळी , मुंबई

 दंडवतेंना दंडवत...!

अनुपम कांबळी , मुंबई


काही वर्षापूर्वी अरविंद केजरीवाल यांनी आम  आदमी पक्षाच्या स्थापनेनंतर साध्या राहणीमानाचे मार्केटिंग केले होते. त्यातील फोलपणा नंतर उघडकीसदेखील आला. त्यावेळी अनेकांना अरविंद केजरीवाल यांच्या त्या साधेपणाचे कौतुक आणि अप्रूप वाटले. कारण त्यांच्यातील बहुतांश लोकांना मधु दंडवते हे अजब रसायन माहितीच नव्हते. बसस्टॉपवर रांगेत उभे असलेल्या नानांचे कित्येक प्रत्यक्षदर्शींनी दर्शन घेतलेले आहे. आपण या देशातील महत्त्वाचे नेते आहोत म्हणून बसच्या पुढच्या दरवाजाने चढण्याची सवलतदेखील या तत्त्वनिष्ठ व्यक्तीने कधी घेतली नव्हती. मधु दंडवते हे देशाचे अर्थमंत्री होते. हे पद गेल्यानंतर ते एका बँकेत जेव्हा चारचाकी गाडीसाठी कर्ज काढायला गेले, तेव्हा तिथला अधिकारी आवाक झाला. देशाचे अर्थमंत्रीपद भूषविलेला नेता गाडीसाठी बँकेत कर्ज घ्यायला येतो हे चित्र या देशात पुन्हा कधी दिसेल असे मला तरी वाटत नाही.  


कणकवली रेल्वेस्टेशनहून मुंबईला प्रवास करत असताना किंवा प्रवास करून आल्यावर मी जिन्याजवळ मधु दंडवतेंचे जे तैलचित्र आहे, त्याला दोन्ही हात जोडून प्रणाम केल्याशिवाय कधीच पुढे जात नाही. तो प्रणाम एवढ्यासाठीच असतो की- आज या कोकण रेल्वेने मी जो काही प्रवास करतोय, तो फक्त आणि फक्त तुमच्यामुळे...! एका कर्मयोग्याप्रति व्यक्त केलेली ती कृतज्ञता असते. राजापूर मतदारसंघाचे खासदार असलेले बॅरिस्टर नाथ पै यांचे अकस्मात निधन झाल्याने अहमदनगरचे प्राध्यापक मधु दंडवते यांना पक्षाने थेट कोकणातून लोकसभा निवडणुकीचे तिकीट दिले. निकष फक्त एकच होता- तो म्हणजे नाथ पै यांच्याप्रमाणे त्यांच्याकडे असलेली विद्वत्ता...! काहीही झाले तरी कोकणची जनता लोकसभा निवडणुकीत मतदान करताना एका विद्वान उमेदवारालाच मत देणार, हा पक्षाला असलेला विश्वास...!! तो काळ इंदिरा गांधी यांचा होता. संपूर्ण देशात 1971 मध्ये इंदिरा गांधी यांची लाट आलेली असताना त्यांनी शेंदूर फासलेला दगडदेखील निवडून येत होता. महाराष्ट्रदेखील याला अपवाद नव्हता. इंदिरा लाटेत कॉँग्रेसचे 48 पैकी 47 खासदार निवडून आले... फक्त एकच खासदार जनता दलाचा निवडून आला... आणि तो खासदार म्हणजे आदरणीय मधु दंडवते...!


कोकणची जनता कोणत्याही लाटेत वाहवत जात नाही, हे त्या वेळी इंदिरा गांधींना आम्ही दाखवून दिले होते. अगदी अलीकडे नरेंद्र मोदी यांची लाट आली. त्या वेळी विधानसभा निवडणुकीत प्रचाराच्या शेवटच्या दिवशी रत्नागिरी व सिंधुदुर्ग जिल्ह्यात पंतप्रधान नरेंद्र मोदींनी सभा घेतल्यानंतरही सर्वच्या सर्व सहा जागांवर भाजपचा पराभव झाला. त्या वेळीसुद्धा कोकणी माणूस हाच संदेश देत होता की- ज्याची देशात लाट असते, त्याचीच आम्ही कोकणात खाट घालतो...! कोणत्याही नेत्याचा उधळलेला वारू थोपवून दाखवण्याची ताकद या कोकणच्या मातीत आहे. थोडक्यात, अहमदनगरचे मधु दंडवते कोकणात निवडून आले आणि नंतर ते कधी कोकणी झाले, ते त्यांनासुद्धा कळले नाही. त्या काळी मधु दंडवते हा कोकणी जनतेचा स्वाभिमान होता आणि आजही आहे. त्यांनी बॅरिस्टर नाथ पै यांच्याप्रमाणे संसदेत अभ्यासपूर्ण भाषणे करून राजापूर मतदारसंघाची ओळख ‘विद्वान लोकांचा मतदारसंघ’ अशी देशभरात सर्वदूर केली. आजही या द्वयींची भाषणे अभ्यासासाठी संसदेत जतन करून ठेवलेली आहेत.  


कालांतराने दंडवते हे देशाचे रेल्वेमंत्री झाले. अ.ब.वालावलकर यांनी कोकण रेल्वेचे स्वप्न पाहिले होते, परंतु आमचे नाना ते स्वप्न अक्षरशः दिवसरात्र जगले. दरी-खोऱ्यांतून रेल्वे शक्य नाही म्हणून याअगोदर कोकण रेल्वेच्या प्रस्तावावर अनेकदा फुली मारण्यात आली होती. मात्र जॉर्ज फर्नांडिस यांच्यासारखा सहकारी आणि ई.श्रीधरन यांच्यासारखा ध्येयनिष्ठ इंजिनिअर यांना सोबत घेऊन नानांनी हे अशक्यप्राय स्वप्न साकार केले. कोकण रेल्वेची संकल्पना जेव्हा त्यांनी कोकणी जनतेसमोर मांडली, तेव्हा कोणताही विकासात्मक दृष्टिकोन नसलेल्या तत्कालीन विरोधकांनी नानांवर अगदी टोकाची टीका केली. ‘दंडवते सदा गंडवते’ या घोषणेपासून रस्त्यावर फिरणाऱ्या रोड रोलरवर ‘आली पहा आली... दंडवतेंची रेल्वे आली...’ या सर्व गोष्टींचा त्यात समावेश होता. मात्र क्षमाशील असलेल्या या कर्मयोग्याने ही विखारी टीकादेखील अगदी हिमालयाप्रमाणे स्तब्ध राहून सहन केली. लोकसभेत विरोधक म्हणून इंदिरा गांधींवर शब्दांच्या धारदार अस्त्रांनी तुटून पडणारे नाना त्यांच्या अकस्मात निधनानंतर भावुक होऊन ‘राजीव गांधींना त्यांची आई आता कधीच मिळणार नाही’ असे उद्‌गार काढतात, तेव्हा या व्यक्तीच्या हृदयाची आणि विचारांची विशालता लक्षात येते. कोकण रेल्वेचे स्वप्न साकारल्यानंतर हे विरोधक काळाच्या ओघात गडप झालेत, परंतु मधु दंडवते हे कोकणच्या इतिहासात अजरामर झालेत. जेव्हा केव्हा कोकणचा इतिहास लिहिला जाईल, तेव्हा त्यात एक पान हे खास नानांसाठी राखीव असेल आणि त्यांचे नाव सुवर्णाक्षरातच लिहिले जाईल, यात तिळमात्र शंका नाही.


कोणत्याही विषयावर अधिकारवाणीने बोलणाऱ्या नानांची कपाटे वेगवेगळ्या विषयांवरच्या पुस्तकांनी भरलेली असत. ज्यांची कपाटे पैशांच्या थैल्यांनी भरलेली होती, त्या नेत्यांना कधीच पराभव पाहावा लागला नाही. मात्र कोकण रेल्वेचे अशक्यप्राय स्वप्न पूर्ण करणाऱ्या नानांचा 1991 च्या लोकसभा निवडणुकीत काँग्रेसचे उमेदवार कर्नल सुधीर सावंत यांनी पराभव केला. त्याच काळात नारायण राणे यांची सिंधुदुर्ग जिल्ह्याच्या राजकारणात एंट्री झालेली असल्याने शिवसेनेची संघटना बळकट झाली होती. अशा परिस्थितीत शिवसेनेने वामनराव महाडिक यांना लोकसभा निवडणुकीचे तिकीट देऊन मतांचे विभाजन केल्याने त्याचा फटका मधु दंडवतेंना बसला व सुधीर सावंत विजयी झाले. सलग पाच वेळा विजय मिळाल्यानंतर अचानकपणे झालेल्या या पराभवामुळे नानांना जबर मानसिक धक्का बसला होता. नेमकी त्याच वेळी त्यांना देशाचा पंतप्रधान बनण्याची संधी  चालून आली होती. तेव्हा ‘मागच्या दरवाजाने (राज्यसभा) जाऊन मी पंतप्रधान होऊ इच्छित नाही’ असे त्यांनी स्पष्ट केले. त्या वेळी लालूप्रसाद यादव व अन्य नेत्यांनी त्यांना ‘बिहारमधला कोणताही मतदारसंघ निवडा, आम्ही तुम्हाला निवडून आणून लोकसभेवर पाठवतो’ अशी खात्री दिली. तेव्हा तत्त्वांच्या या पुजाऱ्याने जे उत्तर दिले, ते ऐकून त्यांचा लोकसभा निवडणुकीत पराभव करणारा कोकणी माणूस मनातून हळहळला. नाना प्रांजळपणे म्हणाले- ‘माझ्या लोकांनी मला निवडणुकीत नाकारले, त्यामुळे देशाचे सर्वोच्च पद भूषविण्याचा नैतिक अधिकारच मला प्राप्त होत नाही.’ आजच्या या बाजारू राजकारणात नानांसारखी नैतिकतेची व्याख्या सांगणारा दुसरा पुढारी शोधून तरी सापडेल का...?


आपली तत्त्वे आणि नैतिकता जपण्यासाठी त्यांनी पंतप्रधानपदावर पाणी सोडले, अन्यथा एक मराठी माणूस देशाचा पंतप्रधान झाला असता. त्यानंतर 1996 च्या लोकसभा निवडणुकीत कोकणच्या जनतेचे लोकसभा निवडणुकीत विद्वान उमेदवाराप्रति असलेले आकर्षण पाहून शिवसेनाप्रमुख बाळासाहेब ठाकरेंनी पेशाने सीए व सारस्वत बँकेचे चेअरमन असलेल्या सुरेश प्रभूंना उमेदवारी दिली. या वेळी सुरेश प्रभूंनी सुधीर सावंत व मधु दंडवते या दोघांचाही पराभव केला. त्या वेळी निकालादिवशी सुरेश प्रभूंना विजयी घोषित केल्यानंतर त्यांनी लगेचच शेजारी उभे असलेल्या मधु दंडवतेंची भेट घेत त्यांच्या चरणांना वाकून स्पर्श केला. मतांच्या गोळाबेरजेत आपण विजयी झालेलो असलो, तरी मधु दंडवते या व्यक्तीचे कोकणप्रति असलेले योगदान प्रभूंना चांगलेच माहिती होते. त्या वेळी नानांनी सुरेश प्रभूंचे अभिनंदन करून त्यांना आलिंगन देत म्हटले, ‘बॅरिस्टर नाथ पै व मी आम्ही दोघांनी संसदेत जपलेला या मतदारसंघाचा लौकिक तुम्ही कायम राखाल याची मला खात्री आहे. आज तुमच्या रूपाने या मतदारसंघाला पुन्हा एकदा विद्वान खासदार मिळाला आहे.’


 आपल्या साधेपणाचे कधी मार्केटिंग करावेसे मधु दंडवतेंना वाटले नाही, कारण तो त्यांच्या रक्तातीलच एक गुण होता. अशा अवलिया नेत्याने कधी काळी माझ्या मतदारसंघाचे सलग पाच वेळा लोकसभेत प्रतिनिधित्व केले होते, हे सांगताना माझी छाती निश्चितपणे अभिमानाने भरून येते. सुरेश प्रभूंनी रेल्वेमंत्रीपदाची शपथ घेतल्यानंतर त्यांना पहिल्यांदा शुभेच्छा देण्यासाठी मी जेव्हा कॉल केला, तेव्हा माझ्या त्यांच्याकडे दोनच प्रमुख मागण्या होत्या.


पहिली म्हणजे, सावंतवाडीला रेल्वे टर्मिनस करा आणि त्या टर्मिनसला कोकण रेल्वेच्या शिल्पकाराचे- म्हणजेच मधु दंडवतेंचे नाव द्या. सुरेश प्रभूंनी पहिली मागणी पूर्ण करून सावंतवाडी टर्मिनसचे काम सुरूदेखील केले पण त्या टर्मिनसला मधु दंडवतेंचे नाव द्यायला ते आज रेल्वेमंत्रिपदावर राहिले नाहीत. ती जबाबदारी आपणा सर्वांना पार पाडावी लागेल. ज्या काळात लोकशाही व्यवस्थेच्या मूलभूत सिद्धांतावर घाव घालण्याचे प्रयत्न सुरू आहेत... ज्या काळात लोकशाही व राजकीय नेतेमंडळींवरचा लोकांचा विश्वास उडत चाललाय... त्या पिढीला आणि पुढच्या अनेक पिढ्यांना ‘दंडवते कोण होते’ हे समजणे नितांत गरजेचे आहे. राजकारणात राहूनही नि:स्पृहपणे काम करता येते, हे पुढच्या पिढ्यांच्या मनावर ठसवून देण्यासाठी त्यांना मधु दंडवते कोण होते हे माहिती असणे नितांत गरजेचे आहे. ज्यांचे चरणस्पर्श घेऊन कृतकृत्य होता यावे, अशा फारच थोड्या व्यक्ती या भूतलावर होऊन गेल्या. त्यात फक्त राजकीय क्षेत्राचा विचार केला असता अशा व्यक्तींची संख्या ही नगण्यच होती. आता एकंदरीतच ज्या वेगाने राजकारणातून नैतिक मूल्यांचा ऱ्हास होत आहे, ते पाहता, मधु दंडवते हे त्या थोर व्यक्तींच्या यादीतील शेवटचेच नाव म्हणावे लागेल. आदरणीय नानांच्या पुण्यतिथीनिमित्त त्यांना विनम्र अभिवादन...!!!

संपूर्ण धरती पर केवल हिंदू

 ये रहे प्रमाण, हिन्दुत्व ही था विश्व का धर्म...


कहते हैं कि एक समय था जबकि संपूर्ण धरती पर सिर्फ हिंदू थे।

 प्राचीन काल में भारत की सीमा अफगानिस्तान के हिन्दूकुश से लेकर अरुणाचल तक और कश्मीर से लेकर श्रीलंका तक। दूसरी ओर अरुणाचल से लेकर इंडोनेशिया, मलेशिया तक फैली थी। 

इस संपूर्ण क्षेत्र में 18 महाजनपदों के सम्राटों का राज था जिसके अंतर्गत सैंकड़ों जनपद और उपजनपद थे। सात द्वीपों में बंँटी धरती के संपूर्ण जम्बूद्वीप पर हिन्दू धर्म ही कायम था।

सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।

अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।  

प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।

तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।

ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।

नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)

प्राचीनकाल में संपूर्ण धरती पर फैला था हिन्दू धर्म?

मैक्सिको, अमेरिका, रूस, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान, किर्गिस्तान, तुर्की, सीरिया, इराक, स्पेन, इंडोनेशिया, चीन आदि सभी जगह पर हिन्दू धर्म से जुड़े साक्ष्य पाए गए है

 विद्वानों अनुसार अरब की यजीदी, सबाइन, सबा, कुरैश आदि कई जातियों का प्राचीन धर्म हिन्दू ही था। मैक्सिको में एक खुदाई के दौरान गणेश और लक्ष्मी की प्राचीन मूर्तियां पाई गईं थी। 

'मैक्सिको' शब्द संस्कृत के 'मक्षिका' शब्द से आता है और मैक्सिको में ऐसे हजारों प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है। दूसरी ओर स्पेन में हजारों वर्ष पुराना एक मंदिर है जिस पर भगवान विष्णु की प्रतिमा अंकीत है।

चीन में हिन्दू 

चीन के इतिहासकारों के अनुसार चीन के समुद्र से लगे औद्योगिक शहर च्वानजो में और उसके चारों ओर का क्षे‍त्र कभी हिन्दुओं का तीर्थस्थल था। वहां 1,000 वर्ष पूर्व के निर्मित हिन्दू मंदिरों के खंडहर पाए गए हैं। इसका सबूत चीन के समुद्री संग्रहालय में रखी प्राचीन मूर्तियांँ हैं। 

मात्र 500 से 700 ईसापूर्व ही चीन को महाचीन एवं प्राग्यज्योतिष कहा जाता था, लेकिन इसके पहले आर्य काल में यह संपूर्ण क्षेत्र हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष नाम से प्रसिद्ध था।

रूस में हिन्दू

एक हजार वर्ष पहले रूस ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। 

माना जाता है कि इससे पहले यहां असंगठित रूप से हिन्दू धर्म प्रचलित था और उससे भी पहले संगठित रूप से वैदिक पद्धति के आधार पर हिन्दू धर्म प्रचलित था।

 रूस में आज भी पुरातत्ववेताओं को कभी-कभी खुदाई करते हुए प्राचीन रूसी देवी-देवताओं की लकड़ी या पत्थर की बनी मूर्तियां मिल जाती हैं। कुछ मूर्तियों में दुर्गा की तरह अनेक सिर और कई-कई हाथ बने होते हैं।

कुछ वर्ष पूर्व ही रूस में वोल्गा प्रांत के स्ताराया मायना (Staraya Maina) गांव में विष्णु की मूर्ति मिली थी जिसे 7-10वीं ईस्वी सन् का बताया गया। यह गांव 1700 साल पहले एक प्राचीन और विशाल शहर हुआ करता था। 2007 को यह विष्णु मूर्ति पाई गई।

 7 वर्षों से उत्खनन कर रहे समूह के डॉ. कोजविनका कहना है कि मूर्ति के साथ ही अब तक किये गये उत्खनन में उन्हें प्राचीन सिक्के, पदक, अंगूठियांँ और शस्त्र भी मिले हैं।

अमेरिका में हिन्दू

शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो लुप्त हो गई। इस जाति का नाम कपि था। वानरों के साम्राज्य की राजधानी किष्किंधा थी। सुग्रीव और बालि इस सम्राज्य के राजा थे। 

भारत के बाहर वानर साम्राज्य अमेरिका में भी था। सेंट्रल अमेरिका के मोस्कुइटीए (Mosquitia) में शोधकर्ता चार्ल्स लिन्द्बेर्ग ने एक ऐसी जगह की खोज की है जिसका नाम उन्होंने ला स्यूदाद ब्लैंका (La Ciudad Blanca) दिया है जिसका स्पेनिश में मतलब व्हाइट सिटी (The White City) होता है, जहां के स्थानीय लोग बंदरों की मूर्तियों की पूजा करते हैं। चार्ल्स का मानना है कि यह वही खो चुकी जगह है जहांँ कभी हनुमान का साम्राज्य हुआ करता था। 

एक अमेरिकन एडवेंचरर ने लिम्बर्ग की खोज के आधार पर गुम हो चुके ‘Lost City Of Monkey God’ की तलाश में निकले।

 1940 में उन्हें इसमें सफलता भी मिली पर उसके बारे में मीडिया को बताने से एक दिन पहले ही एक कार दुर्घटना में उनकी मौत हो गई और यह राज एक राज ही बनकर रह गया। अमेरिका की माया सभ्यता के अवशेष भी हिन्दू धर्म से जुड़ते हैं।

अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया (वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं

 संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना ने नेटिव अमेरिकन की एक 45वीं मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वास्तिक था। नाजियों की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।

इंडोनेशिया में हिन्द

इंडोनेशिया कभी हिन्दू राष्ट्र हुआ करता था, लेकिन इस्लामिक उत्थान के बाद यह राष्ट्र आज मुस्लिम राष्ट्र है। इंडोनेशिया का एक द्वीप है बाली जहां के लोग अभी भी हिन्दू धर्म का पालन करते हैं।

 इंडोनेशिया के  बाली द्वीप पर हिन्दुओं के कई प्राचीन मंदिर हैं, जहां एक गुफा मंदिर भी है। इस गुफा मंदिर को गोवा गजह गुफा और एलीफेंटा की गुफा कहा जाता है। 

19 अक्टूबर 1995 को इसे विश्व धरोहरों में शामिल किया गया। यह गुफा भगवान शंकर को समर्पित है। यहां 3 शिवलिंग बने हैं। देश-विदेश से पर्यटक इसे देखने आते हैं।

कंबोडिया में हिन

पौराणिक काल का कंबोजदेश कल का कंपूचिया और आज का कंबोडिया। पहले हिंदू रहा और फिर बौद्ध हो गया।

 विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर परिसर तथा विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारक कंबोडिया में स्थित है। यह कंबोडिया के अंकोर में है जिसका पुराना नाम 'यशोधरपुर' था। 

इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय (1112-53ई.) के शासनकाल में हुआ था। यह विष्णु मन्दिर है जबकि इसके पूर्ववर्ती शासकों ने प्रायः शिवमंदिरों का निर्माण किया था। 

कंबोडिया में बड़ी संख्या में हिन्दू और बौद्ध मंदिर हैं, जो इस बात की गवाही देते हैं कि कभी यहांँ भी हिन्दू धर्म अपने चरम पर था। माना जाता है कि प्रथम शताब्दी में कौंडिन्य नामक एक ब्राह्मण ने हिन्द-चीन में हिन्दू राज्य की स्थापना की थी। इन्हीं के नाम पर कम्बोडिया देश हुआ।

 हालांँकि कम्बोडिया की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के शिवभक्त राजा कम्बु स्वायंभुव ने डाली थी। वे इस भयानक जंगल में आए और यहांँ बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने यहां एक नया राज्य बसाया, जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे-भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया।

 कम्बु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कम्बुज राजवंश की नींव डाली। कम्बोडिया में हजारों प्राचीन हिन्दू और बौद्ध मंदिर है।

वियतनाम में हिन्दू

वियतनाम का इतिहास 2,700 वर्षों से भी अधिक प्राचीन है।

 वियतनाम का पुराना नाम चम्पा था। चम्पा के लोग और चाम कहलाते थे। वर्तमान समय में चाम लोग वियतनाम और कम्बोडिया के सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं। 

आरम्भ में चम्पा के लोग और राजा शैव थे लेकिन कुछ सौ साल पहले इस्लाम यहां फैलना शुरु हुआ। अब अधिक चाम लोग मुसलमान हैं पर हिन्दू और बौद्ध चाम भी हैं।

 भारतीयों के आगमन से पूर्व यहांँ के निवासी दो उपशाखाओं में विभक्त थे। हालांकि संपूर्ण वियतनाम पर चीन का राजवंशों का शासन ही अधिक रहा।

 दूसरी शताब्दी में स्थापित चंपा भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। यहां के चम लोगों ने भारतीय धर्म, भाषा, सभ्यता ग्रहण की थी। 1825 में चंपा के महान हिन्दू राज्य का अंत हुआ। 

श्री भद्रवर्मन् जिसका नाम चीनी इतिहास में फन-हु-ता (380-413 ई.) मिलता है, चंपा के प्रसिद्ध सम्राटों में से एक थे जिन्होंने अपनी विजयों ओर सांस्कृतिक कार्यों से चंपा का गौरव बढ़ाया। 

किंतु उसके पुत्र गंगाराज ने सिंहासन का त्याग कर अपने जीवन के अंतिम दिन भारत में आकर गंगा के तट पर व्यतीत किये। चम्पा संस्कृति के अवशेष वियतनाम में अभी भी मिलते हैं। इनमें से कई शैव मन्दिर हैं।

मलेशिया में हिन्दू 

मलेशिया वर्तमान में एक मुस्लिम राष्ट्र है लेकिन पहले यह एक हिन्दू राष्ट्र था।

 मलय प्रायद्वीप का दक्षिणी भाग मलेशिया देश के नाम से जाना जाता है। इसके उत्तर में थाइलैण्ड, पूर्व में चीन का सागर तथा दक्षिण और पश्चिम में मलाक्का का जलडमरूमध्य है।

उत्तर मलेशिया में बुजांग घाटी तथा मरबाक के समुद्री किनारे के पास पुराने समय के अनेक हिन्दू तथा बौद्ध मंदिर आज भी हैं। मलेशिया अंग्रेजों की गुलामी से 1957 में मुक्त हुआ।

 वहांँ पहाड़ी पर बटुकेश्वर का मंदिर है जिसे बातू गुफा मन्दिर कहते हैं। वहां पहुंचने के लिए लगभग 276 सीढ़ियांँ चढ़नी पड़ती हैं।

 पहाड़ी पर कुछ प्राचीन गुफाएं भी हैं। पहाड़ी के पास स्थित एक बड़े मंदिर देखने में हनुमानजी की भी एक भीमकाय मूर्ति लगी है।

सिंगापुर में हिन्दू

सिंगापुर एक छोटा सा राष्ट्र है। यह ब्राईंदेश दक्षिण में मलय महाद्वीप के दक्षिण सिरे के पास छोटा-सा द्वीप है।

 इसके उत्तर में मलेशिया का किनारा, पूर्व की ओर चीन का समुद्र और दक्षिण-पश्चिम की ओर मलक्का का जलडमरू- मध्य है। 14वीं सदी तक सिंगापुर टेमासेक नाम से जाना जाता था। 

सुमात्रा के पॉलेमबग का राजपुत्र संगनीला ने इसे बासाया था तब इसका नाम सिंहपुर था। यहां इस बात के चिह्न मिलते हैं कि उनका कभी हिन्दू धर्म से भी निकट का संबंध था। 

1930 तक उनकी भाषा में संस्कृत भाषा के शब्दों का समावेश है। उनके नाम हिन्दुओं जैसे होते थे और कुछ नाम आज भी अपभ्रंश रूप में हिन्दू नाम ही हैं।

थाइलैंड में हिन्दू 

थाइलैंड एक बौद्ध राष्ट्र है। यहां पर प्राचीनकाल में हिन्दू और बौद्ध दोनों ही धर्म और संस्कृति का एक साथ प्रचलन था लेकिन अब हिन्दू नगण्य है। 

खैरात के दक्षिण-पूर्व में कंबोडिया की सीमा के पास उत्तर में लगभग 40 कि.मी. की दूरी पर युरिराम प्रांत में प्रसात फ्नाम रंग नामक सुंदर मंदिर है। 

यह मंदिर आसपास के क्षेत्र से लगभग 340 मी. ऊंचाई पर एक सुप्त ज्वालामुखी के मुख के पास स्थित है। इस मंदिर में शंकर तथा विष्णु की अति सुंदर मूर्ति हैं।

फिलीपींस :

फिलीपींस में किसी समय भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रभाव था, पर 15वीं शताब्दी में मुसलमानों ने आक्रमण कर वहां आधिपत्य जमा लिया। आज भी फिलीपींस में कुछ हिन्दू रीति-रिवाज प्रचलित हैं।

जर्मनी में हिन्दूज

र्मनी तो खुद को आर्य मानते ही हैं। लेकिन आश्चर्य की जर्मन में 40 हजार साल पुरानी भगवान नरसिंह की मूर्ति मिली। 

यह मूर्ति सन् 1939 में पाई गई थी। ये मूर्ति इंसानों की तरह दिखने वाले शेर की है। जिसकी लंबाई 29.6 सेंटीमीटर (11.7 सेमी) है।

 कॉर्बन डेटिंग पद्धति से बताया गया है कि यह लगभग 40 हजार साल पुरानी है। ये मूर्ति होहलंस्टैंन स्टैडल, जर्मन घाटी क्षेत्र में मिली थी। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद गायब हो गई थी। 

बाद में उसे खोजा गया। यह मूर्ति खंडित अवस्था में मिली थी और 1997-1998 के दौरान कुछ लोगों ने उसे जोड़ा। सन् 2015 में उसे म्यूजियम में रखा गया।

Tuesday, June 8, 2021

राजगुरु

रणछोड़दास रबारी 'पागी' भुज

 👆अजय देवगन की एक फ़िल्म आने वाली है, जिसका नाम है— 'भुज - the pride of India' इसमें संजय दत्त एक किरदार निभा रहे हैं, रणछोड़दास रबारी 'पागी' का। इनके बारे में कम लोग ही जानते हैं।

फोटो में जो वृद्ध गडरिया है, वास्तव में ये एक सेना का सबसे बड़ा राजदार था। 2008 फील्ड मार्शल मानेक शॉ वेलिंगटन अस्पताल, तमिलनाडु में भर्ती थे। गम्भीर अस्वस्थता तथा अर्धमूर्छित अवस्था में वे एक नाम अक्सर लेते थे - 'पागी-पागी', डाक्टरों ने एक दिन पूछ ही लिया “Sir, who is this Paagi?”

सैम साहब ने खुद ही brief किया-

1971 का भारत युद्ध जीत चुका था, जनरल मानेक शॉ ढाका में थे। आदेश दिया कि पागी को बुलवाओ, dinner आज उसके साथ करूँगा। हेलिकॉप्टर भेजा गया। हेलिकॉप्टर पर सवार होते समय पागी की एक थैली नीचे रह गई, जिसे उठाने के लिए हेलिकॉप्टर वापस उतारा गया। अधिकारियों ने नियमानुसार हेलिकॉप्टर में रखने से पहले थैली खोलकर देखी, तो दंग रह गए। क्योंकि उसमें दो रोटी, प्याज तथा बेसन का एक पकवान (गाठिया) भर था। Dinner में एक रोटी सैम साहब ने खाई एवं दूसरी पागी ने।

उत्तर गुजरात के 'सुईगाँव ' अन्तर्राष्ट्रीय सीमा क्षेत्र की एक border post को रणछोड़दास post नाम दिया गया। यह पहली बार हुआ जब किसी आम आदमी के नाम पर सेना की कोई post और साथ ही उनकी मूर्ति भी लगाई गई।

पागी का अर्थ है- 'मार्गदर्शक', अर्थात वो व्यक्ति जो रेगिस्तान में रास्ता दिखाए। 'रणछोड़दास रबारी' को जनरल सैम मानिक शॉ इसी नाम से बुलाते थे।

रणछोड़दास गुजरात के बनासकांठा ज़िले के पाकिस्तान की सीमा से सटे गाँव पेथापुर गथड़ों के निवासी थे। वे भेड़, बकरी व ऊँट पालन का काम करते थे। उनके जीवन में बदलाव तब आया, जब उन्हें 58 वर्ष की आयु में बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक वनराज सिंह झाला ने उन्हें पुलिस के मार्गदर्शक के रूप में रख लिया।

उनमें हुनर इतना था कि ऊँट के पैरों के निशान देखकर ही बता देते थे कि उस पर कितने आदमी सवार हैं। इंसानी पैरों के निशान देखकर वज़न से लेकर उम्र तक का अन्दाज़ा लगा लेते थे। कितनी देर पहले का निशान है तथा कितनी दूर तक गया होगा, सब एकदम सटीक आँकलन, जैसे कोई कम्प्यूटर गणना कर रहा हो।


1965 के युद्ध के आरम्भ में पाकिस्तानी सेना ने भारत के गुजरात में कच्छ सीमा स्थित विधकोट पर कब्ज़ा कर लिया। इस मुठभेड़ में लगभग 100 भारतीय सैनिक हताहत हो गये थे तथा भारतीय सेना की एक 10 हजार सैनिकों वाली टुकड़ी को तीन दिन में छारकोट पहुँचना आवश्यक था। तब आवश्यकता पड़ी थी, पहली बार रणछोडदास पागी की। रेगिस्तानी रास्तों पर अपनी पकड़ की बदौलत उन्होंने सेना को तय समय से 12 घण्टे पहले मञ्ज़िल तक पहुँचा दिया था। सेना के मार्गदर्शन के लिए उन्हें सैम साहब ने खुद चुना था तथा सेना में एक विशेष पद सृजित किया गया- 'पागी'। अर्थात- पग अथवा पैरों का जानकार।


भारतीय सीमा में छिपे 1200 पाकिस्तानी सैनिकों की location तथा अनुमानित संख्या केवल उनके पदचिह्नों से पता कर भारतीय सेना को बता दी तथा इतना ही काफ़ी था, भारतीय सेना के लिए वो मोर्चा जीतने के लिए।


1971 के युद्ध में सेना के मार्गदर्शन के साथ-साथ अग्रिम मोर्चे तक गोला-बारूद पहुँचाना भी पागी के काम का हिस्सा था। पाकिस्तान के पालीनगर शहर पर जो भारतीय तिरंगा फहराया था, उस जीत में पागी की अहम भूमिका थी। सैम साब ने स्वयं ₹300 का नक़द पुरस्कार अपनी जेब से दिया था।


पागी को तीन सम्मान भी मिले 65 व 71 के युद्ध में उनके योगदान के लिए - संग्राम पदक, पुलिस पदक व समर सेवा पदक।


27 जून, 2008 को सैम मानिक शॉ का देहांत हो गया तथा 2009 में पागी ने भी सेना से 'स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति' ले ली। तब पागी की उम्र 108 वर्ष थी। जी हाँ, आपने सही पढ़ा... 108 वर्ष की उम्र में 'स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति' एवं सन् 2013 में 112 वर्ष की आयु में पागी का निधन हो गया।