Wednesday, October 28, 2015

सलील गेवाली यांच्या पुस्तकासाठी प्रस्तावना

सलील गेवाली यांच्या पुस्तकासाठी प्रस्तावना
राष्ट्रचेतना

कोटि कोटि वर्षोंपूर्व कभी इस ब्रह्माण्डमें पृथ्वी नामक एक नया ग्रह बनता है और सूर्यमालिकामें अपनी
कालक्रमणा करने लगता है। इसके लाखों वर्षोंपश्चात् किसी समय यहाँ जीवसृष्टि का उदय होता है । उस
अपरिमित जीवसृष्टिका एक जीव है मानव । अन्य सजीवोंमें प्रकट होनेवाले उसी चैतन्यकी धरोहर लिये, लेकिन
वैचारिक क्षमतामें शायद उन सबसे कई युग, कई योजन आगे। यही मानव विचार करता है और पूछता है --
क्या यह चैतन्य जीवसृष्टिके साथ अवतरित हुआ या कि वह ब्रह्माण्डमें पहलेसेही विचरण करता था ?

मानवकी विचार-क्षमतासे आरंभ होती है इस प्रकारके प्रश्नोंकी मालिका। पहला स्वाभाविक प्रश्न है कोsहम् --
मैं कौन हूँ और इसका अन्तिम सत्यात्मक उत्तर है सोsहम् -- मैं वही हूँ।

वही याने कौन ?और मैं कौन से आरंभकर मैं वही हूँ इस ज्ञान तक पहुँचनेकी कालगणना कितनी लम्बी है ?
उस ज्ञानतक पहुँचने के लिये कितनी अधिक वैचारिक प्रगल्भता चाहिये ? भारतीय दर्शन बताता है कि
मैं कौन से आरंभ होनेवाला यह प्रवास विचारोंसे प्रेरित तो है परन्तु इसकी समाप्ति विचारोंसे नही बल्कि
अनुभूतिसे होती है। भारतीय संस्कृति बताती है कि अनुभूति पानेे लिये गुरू ही आधार है -- प्रथम गुरु स्वयं श्री
शिव हैं। इसी लिये गुरुकी महिमा है -- गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।

यह अनुभूति जब एक व्यक्तिकी थाती बन जाती है तब क्या वह वैश्विक हो जाती है ? क्या वह सार्वजनिक साझा
की जा सकती है ? नही। हर मनुष्यको अपनी यात्रा स्वयं करनी है -- प्रश्नसे विचार तक और विचारसे अनुभूति तक -- लेकिन हाँ, एक गुरु जो अनुभूति तक पहुँच चुका है, वह साधकको राहकी कठिनाईय़ाँ और पडाव (विरामस्थल) बता सकता है, आरंभमें हाथ पकडकर थोडी दूर चला सकता है। और यदि गुरु समर्थ हो तो साधकको अनुभूति की कगार तक ले जा सकता है। लेकिन जो अन्तिम सत्य जानना है उसके लिये साधकको स्वयं ही पूरे प्रयास लगाकर वहाँ पहुँचना पडता है। वह चैतन्य जो सभी जीवोंमें विराजमान है, यह उस चैतन्य का गुण है कि साधकको अनुभूतितक प्रेरित करता रहे। लेकिन इस राह के पडाव भी लगभग अनन्त हैं। सामान्य जीव कुछ को पार कर ही लेता है। और उसी काल में वैचारिक प्रगल्भता बढती चलती है जो स्वाभाविक रूपसे आधिभौतिक उँचाइयाँ भी देती है जैसे संगीत, गणित, खगोल, निसर्ग, राज्यशास्त्र इत्यादि।

इस प्रकारका दर्शन भारतमें उदित हुआ। उसे पूर्णता आते आते भी सहस्त्रों वर्ष लग गये। उसके विषयमें भगवद्गीता का कथन -- स कालेनेsह महता योगो नष्टः परंतप -- क्या एक ही बार हुआ या कई कई बार हुआ ? जो भी हो, लेकिन वह दर्शन और जीवात्माके सोsहम् तक पहूँचनेके पडावोंका जो वर्णन अलग-अलग अनुभूति-सिद्ध पुरुषोंने किया है, वही पूरे भारतवर्षकी थाती है --वही हमारी संस्कृति है। पर इस बातको वही समझेंगे जो इसे गुनेंगे।

भारतीय संस्कृतिके इस प्रदीर्घ प्रवासमें वह टिकी रही। ज्ञान भले ही विलुप्त होता रहा हो, परन्तु संस्कृति बनी रही। लेकिन क्या आज यह विलुप्तिके कगारपर है ? यदि हाँ, तो कितना समय है अपने पास कि इसकी फिसलनको रोक सकें और इसे पुनः दृढमूल करें?

लेकिन उससे पहला प्रश्न यह आता है कि क्या संस्कृति आधुनिकताके विरुद्ध होती है ? क्या भारतीय संस्कृति आधुनिकता की विरोधी है ? वह आधुनिकता जिसकी चाहना हम सबको है। क्या भारतीय संस्कृतिके नष्ट होनेसे ही भारतके लिये आधुनिकता और विकासके द्वार खुलेंगे ?

(अपूर्ण)








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