शरीर त्यागने के बाद जीव की चार गतियांँ -----
(१) सद्योमुक्ति
(२) क्रममुक्ति अर्थात् उत्तरायण-गति अर्थात् देवयान-मार्ग ।
(३) पितृयान-मार्ग अर्थात् दक्षिणायन-गति
(४) जायस्व-म्रियस्व गति
इन चारों गतियों का वर्णन वेदों , उपनिषदों तथा पुराणादिकों में पाया जाता है , उन्हीं के आधार पर यहाँ लिखते हैं ===
(१) सद्योमुक्ति ==
जीवन-मुक्त सिद्ध-महात्मा , ब्रह्मविद्-वरिष्ठ अपने जीवनकाल में ही अनेक जन्मों के सञ्चित शुभ-कर्मों को ब्रह्मज्ञान-रूपी अग्नि से भस्म कर देते हैं।
अतः ब्रह्म-साक्षात्कार के अनन्तर होने वाले जीवन-यात्रा-निर्वाह सम्बन्धी कर्मों में आसक्ति-ममता न होने के कारण इन कर्मों का फल उन्हें नहीं मिलता।
प्रारब्ध-कर्मों को वे भोगकर क्षीण कर देते हैं ।
प्रारब्ध-सञ्चित-क्रियमाण तीन कर्मों के फलस्वरूप तथा स्थूल-सूक्ष्म-कारण तीन शरीरों के माध्यम से ही जीव पुनर्जन्म को प्राप्त करता है।
अतः ऐसे जीवन-मुक्त-महात्मा जब स्थूल-शरीर छोड़ते हैं , तो तीनों कर्मों के नष्ट हो जाने पर भीतर के सूक्ष्म-कारण शरीर को त्याग कर किसी दूसरे लोक या शरीर में नहीं जाते , तत्काल वहीं , उसी समय मुक्त हो जाते हैं ।
जैसे घटाकाश का आकाश घड़ा फूटने पर महाकाश में लीन होता है , वैसे ही ये महात्मा ब्रह्म में लीन हो जाते हैं ।
वेद में कहा है ---- "न स पुनरावर्तते , अनावृत्ति शब्दात्"
गीता में भी भगवान् कहते हैं ---- "यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।"
(२) देवयान-गति ==
इसे उत्तरायण-मार्ग भी कहते हैं। यह योगियों के लिये है , सर्व-साधारण जीवों के लिये नहीं ।
यहाँ काल से तात्पर्य है --- जो योगी ध्यान-धारणा-समाधि के द्वारा ब्रह्मानुभूति के अनन्तर शरीर त्यागते हैं , वे दिन-रात्रि , शुक्ल पक्ष - कृष्ण पक्ष , उत्तरायण व दक्षिणायन कभी भी शरीर त्यागें , उनके सूक्ष्म-कारण शरीर को ज्योति तथा दिन के अभिमानी देवता ले जाते हैं और वह शुक्ल-पक्ष के अभिमानी देवता को सौंपते है ।
उसके अभिमानी देवता उत्तरायण के छः महीनों के अभिमानी देवता को सौंपते हैं। उससे उनके शरीर को वर्ष का अभिमानी देवता लेता है । वर्ष का अभिमानी देवता सूर्य-मण्डल में ले जाता है ।
वहाँ से वह चन्द्र-मण्डल को प्राप्त करता है । चन्द्रमा से विद्युत को प्राप्त करता है । वहाँ से अमानव-पुरुष ब्रह्म को प्राप्त करता है ------ यह देवयान-मार्ग है ।
इसको प्राप्त होने वाला योगी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता है -------- ऐसा बृहदारण्यकोपनिषद् के छठवें अध्याय के दूसरे ब्राह्मण के पन्द्रहवें मन्त्र में आया है ।
मूल मन्त्र इस प्रकार है ----
"ते य एवमेतद्विदुर्ये चामी अरण्ये श्रद्धां सत्यमुपासते तेऽर्चिरभिसंभवन्ति ।
अर्चिषोऽहः ।
अह्न आपूर्यमाणपक्षम् ।
आपूर्यमाणपक्षाद्यान् षण्मासानुदङ्ङादित्य एति ।
मासेभ्यो देवलोकम् ।
देवलोकादादित्यम् ।
आदित्याद्वैद्युतम् ।
तान् वैद्युतान् पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकान् गमयति ।
ते तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः परावतो वसन्ति ।
तेषां न पुनरावृत्तिः ॥ " 【बृह. ६,२.१५】
देवयान-गति ऐसे ब्रह्मवेत्ताओं की गति है , जिनको पूर्ण-ब्रह्म का बोध हो चुका है किन्तु ब्रह्मलोक का सुख भोगने के अनन्तर ब्रह्मलोक से मुक्त होना चाहते हैं ।
उन योगियों को ब्रह्मलोक के भोग के अनन्तर ब्रह्मलोक से मुक्ति मिलती है ।
इन औपनिषदिक-मन्त्रों में कहे गये दिन-पक्ष-मास का अर्थ काल नहीं है , किन्तु काल के अभिमानी देवताओं से इनका तात्पर्य है ।
इसी बात को भगवान् ने गीता के आठवें अध्याय के तेइसवें व चौबीसवें श्लोक में कहा है -----
"यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।।"
अर्थ =
हे अर्जुन !
जिस काल में (यहाँ काल शब्द से मार्ग समझना चाहिये, क्योंकि आगे के श्लोकों में भगवान् ने इसका नाम 'सृति', 'गति' ऐसा कहा है।) शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन तो वापस न लौटने वाली गति को और जिस काल में गये हुए वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात् दोनों मार्गों को कहूँगा । 【२३】
जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाये जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । 【२४】
अब यहां कुछ लोग शंका करते हैं कि उपनिषद् तथा गीता में पक्ष आदि से काल का ही ज्ञान होता है , क्योंकि यदि काल के अभिमानी देवता होते , तो भीष्म-पितामह दक्षिणायन में शरीर छोड़ने वाले थे।
किन्तु उन्होंने पिता के वरदान तथा योगशक्ति के प्रभाव से उत्तरायण की प्रतीक्षा की।
यदि समय का प्रतिबन्ध न होता तो उत्तरायण की प्रतीक्षा न करते । इससे काल सिद्ध होता है !
तो इसका उत्तर है ---- भीष्म-पितामह पूर्व जन्म में आठ वसुओं में अन्तिम "द्यु" नामक वसु थे ।
वशिष्ठ जी का इन वसुओं को शाप था , क्योंकि ये आठों भाई वशिष्ठ जी की नन्दिनी गऊ चुराकर ले जा रहे थे।
पता चलने पर वशिष्ठ जी उनके पीछे पड़ गये। सात वसु तो भागने में सफल हुए किन्तु अन्तिम आठवें वसु पकड़ में आ गये ।
पाठान्तर में कहा गया है कि सात वसुओं ने क्षमा याचना की तो उन्हें केवल एक दिन के मृत्युलोक में जाने का दंड मिला। किंतु अंतिम द्यु नाम के वसु ने क्षमा याचना नहीं की और पूरा दंड भोगने की इच्छा व्यक्त की। तब उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान मिला।
गुरु वशिष्ठ जी ने सात वसुओं को शाप दिया कि अगले जन्म में तुम्हारी माता के हाथों ही मृत्यु होगी , आठवें वसु से कहा 'तुम दीर्घजीवी होगे तथा तुम्हारी इच्छामृत्यु होगी'। वही आठवें वसु दूसरे जन्म में देवव्रत हुए ।
इनको गुरु वशिष्ठ जी तथा पिता शान्तनु जी का स्वेच्छा-मृत्यु का वरदान था , अतः उन्होंने काल की प्रतीक्षा की ------ यह कथा महाभारत के आदिपर्व के सम्भव उपपर्व में आई है ।
अतः उत्तरायण काल का योगी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । युक्त-योगी जब भी चाहें दिन में या रात्रि में , शुक्ल-पक्ष में या कृष्ण-पक्ष में , दक्षिणायन में या उत्तरायण में ------ कभी भी शरीर त्यागें , उन पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता । किन्तु शुक्ल-दक्षिण-उत्तरायण आदि के देवता उनको देवलोक में ले जाते हैं ।
यदि दिन- शुक्ल पक्ष- उत्तरायण आदि का नियम होता तो दिन - शुक्ल पक्ष - उत्तरायण आदि में भू-मण्डल में न जाने कितने अरबों-खरबों जीव शरीर त्यागते हैं , उन सबकी भी मुक्ति हो जानी चाहिये। अतः यह नियम देवयान वाले योगीयों के लिये है , सर्व-साधारण के लिये नहीं ----- यह सिद्ध हुआ ।
(३) पितृयान-मार्ग ==
बृहदारण्यकोपनिषद् के ही छठें अध्याय में दूसरे ब्राह्मण के सोहलवें मन्त्र में दक्षिणायन-मार्ग से जाने वाले योगियों के विषय में कहा है------
"अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसंभवन्ति ।
धूमाद्रात्रिम् ।
रात्रेरपक्षीयमाणपक्षम् ।
अपक्षीयमाणपक्षाद्यान् षण्मासान् दक्षिणादित्य एति ।
मासेभ्यः पितृलोकम् ।
पितृलोकाच्चन्द्रम् ।
ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति।
तांस्तत्र देवा यथा सोमं राजानमाप्यायस्वापक्षीयस्वेत्येवमेनांस्तत्र भक्षयन्ति ।
तेषां यदा तत्पर्यवैत्यथेममेवाकाशमभिनिष्पद्यन्ते ।
आकाशाद्वायुम् ।
वायोर्वृष्टिम् ।
वृष्टेः पृथिवीम् ।
ते पृथिवीं प्राप्यान्नं भवन्ति ।
ते पुनः पुरुषाग्नौ हूयन्ते ततो योषाग्नौ जायन्ते ।
लोकान् प्रत्युथायिनस्त एवमेवानुपरिवर्तन्ते ।
अथ य एतौ पन्थानौ न विदुस्ते कीटाः पतङ्गा यदिदं दन्दशूकम् ॥" 【बृ ६,२.१६】
अर्थात् जो सकाम भाव से यज्ञ-दान-तपस्या से लोकों को जीतते हैं , वे शरीर त्यागने के अनन्तर धुएं के रूप में प्राप्त होते हैं , धूम से रात्रि , रात्रि से कृष्ण-पक्ष , कृष्ण-पक्ष से दक्षिणायन का महीना ।
इन छः मासों से पितृलोक को , पितृलोक से चन्द्र-मण्डल को प्राप्त करते हैं , वहाँ पर बहुत काल तक सुख भोगते हैं, (पुण्य क्षीण होने पर) भाफ , भाफ से कुहरा , कुहरे से बादल , बादल से जल के बूँदों द्वारा अन्न रूप में प्रकट होते हैंं ।
वहाँ पर जैसे देवता सोम का पान करते हैं , वैसे ही देवता उसको खाते हैं।
वहाँ से वह आकाश को प्राप्त करता है। आकाश से वायु में आता है । वायु से वर्षा में आता है । वर्षा से पृथ्वी में अन्न-जल-रस को प्राप्त करता है । अन्न-जल के रूप में भावी पिता के वीर्य में आता है।
यदि कच्चा अन्न या फल टूटकर गिर जाता है , तो अन्तराल में नष्ट हो जाता है।
यदि उस अन्न आदि को ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी , संन्यासी या नपुंसक सेवन करता है , या ऊसर में गिरता है तो भी नष्ट हो जाता है ।
यदि पुरुष सेवन करता है , तो पुरुष के पेट की अग्नि में आता है , पिता के पेट की अग्नि में २८ दिन पकने के बाद क्रमानुसार रक्त-मांस- अस्थि-मेद-मज्जा के अनन्तर वीर्य के रूप में होता है ।
पिता द्वारा माता के पेट की अग्नि में आता है , उसमें नौ महीने रहकर पुरुष होता है ।
तद्-तद् अन्न-फल आदि को कोई पशु-पक्षी भक्षण करता है , तो पशु-पक्षी का या कीट-पतंग-खटमल आदि का जन्म होता है ।
पुरूष द्वारा स्त्री के शरीर में रहने के बाद पुरुष के रुप में जन्म लेकर मनुष्य शरीर में आता है ----- इस बात को संक्षेप में भगवान् ने गीता के आठवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में कहते हैं --
"धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥"
अर्थात् =
जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता है, रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्ण पक्ष का अभिमानी देवता है और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्म करने वाला योगी उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चंद्रमा की ज्योत को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता ह ।
(४) जायस्व-म्रियस्व मार्ग ==
यह गति सर्व-साधारण जीवों की है , जो मनुष्य शरीर प्राप्त करके सामान्य रूप से तीन प्रकार के शुभ-अशुभ तथा मिश्रित कर्म करते हैं , वे शरीर त्यागने के बाद शुभ-कर्मों से सुख-प्रधान देव शरीर प्राप्त करते हैं ।
जो पाप करते हैं , वे नरक भोगने के लिये यातनामय देह प्राप्त करते हैं ।
उसके बाद चौरासी लाख योनियों को प्राप्त करते हैं तथा जो मिले-जुले कर्म करते हैं । वह मनुष्य शरीर प्राप्त करते हैं ------
यह सर्व-साधारण का मार्ग है ।
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