पुरुष सूक्त :-
वेद में भगवान नारायण का ही विराट् और परम पुरुष के रूप में वर्णन किया गया है ।
उसी विराट् पुरुष को कभी ब्रह्म, कभी नारायण, कभी परम पुरुष, कभी प्रजापति तो कभी धाता-विधाता कहा गया है ।
इस विश्व के असंख्य प्राणियों के असंख्य सिर, आँख और पैर उस विराट् पुरुष के ही सिर, आँख और पैर हैं । सभी प्राणियों के हृदय में वही विराजमान हैं, और वह विराट् पुरुष ही समस्त ब्रह्माण्ड को सब ओर से घेर कर, दृश्य-अदृश्य सभी में व्याप्त है
प्राणियों में जो कुछ भी बल, बुद्धि, तेज एवं विभूति है, सब परमेश्वर से ही है । उसी में सब देवों, सब लोकों और सब यज्ञों का पर्यवसान (अंत) है ।
उस के समान न कोई है, और न कोई उस से बढ़ कर है। जो-जो भी ऐश्वर्य-युक्त, कान्ति-युक्त और शक्ति-युक्त वस्तुएं है, वह सब उस के तेज के अंश की अभिव्यक्ति हैं।
इसलिये मनुष्य के लिये जितने भी आवश्यक पदार्थ हैं, सब की याचना परमात्मा से ही करनी चाहिये, किसी अन्य से नहीं ।
उस हृदय में स्थित परम पुरुष का जो मनुष्य निरन्तर अनुभव-स्मरण करता है, उन्हीं को सदा के लिए परमानन्द की प्राप्ति होती है ।
पुरुष सूक्त (हिन्दी अनुवाद सहित)
पुरुष सूक्त ऋग्वेद के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त है । यजुर्वेद (३१।१-१६) में भी पुरुष सूक्त का वर्णन किया गया है ।
वेद-मंत्र ही नहीं, कोई भी मंत्र या प्रार्थना बिना अर्थ समझे यदि पढ़े जायें, तो वे फलदायी नहीं होते हैं।
इस वैदिक प्रार्थना के महत्व और अर्थ को समझ कर ही, उस का पूरा लाभ उठाया जा सकता है ।
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात् ।
स भूमिँ सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशांगुलम् ।। १ ।।
अर्थ :- परमात्मा अनन्त सिरों, अनन्त चक्षुओं (नेत्रों) और अनन्त चरणों वाले हैं ।
वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि को सब ओर से व्याप्त कर के, दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं, अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उस के बाहर भी व्याप्त हैं ।
पुरुष एवेदम् सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।। २ ।।
अर्थ :- यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया, और जो आगे होने वाला है, यह सब वे परम पुरुष ही हैं ।
इस के अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सब के भी ईश्वर हैं । अर्थात् जो कुछ हुआ है, या जो कुछ होने वाला है, सो सब परम पुरुष अर्थात् परमात्मा ही है ।
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुष: ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।। ३ ।।
अर्थ :- यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुष का वैभव है । वे अपने इस विभूति- विस्तार से भी महान् हैं । उन परमेश्वर के चतुर्थांश (एकपाद्विभूति) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है ।
उन की शेष त्रिपाद्विभूति में वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि शाश्वत दिव्यलोक हैं ।
अर्थात् यह सारा ब्रह्माण्ड उन की महिमा है। वे तो स्वयं अपनी महिमा से भी बड़े हैं। उन का एक अंश ही यह ब्रह्माण्ड है। उन के तीन अविनाशी अंश तो दिव्यलोक में हैं।
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष: पादोऽस्येहाभवत् पुन: ।
ततो विष्वं व्यक्रामत्साशनानशने अभि ।। ४ ।।
अर्थ :- त्रिपाद्विभूति में उन परम पुरुष का स्वरूप नित्य प्रकाशमान है, क्यों कि वहां माया का प्रवेश नहीं है ।
इस विश्व के रूप में उन का एक पाद ही प्रकट हुआ है, और इस एक पाद से ही वे समस्त जड़ और चेतन रूप समस्त जगत् को व्याप्त किये हुए हैं ।
अर्थात् चार भागों वाले विराट् पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार समाहित है, व इस के तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं ।
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुष: ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ।। ५ ।।
अर्थ :- उन्हीं आदि पुरुष से ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ । वे परम पुरुष ही ब्रह्माण्ड के अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) के रूप में प्रकाशित हुए ।
ब्रह्माण्ड-देह से जीव उत्पन्न हुए। बाद में उन्होंने भूमि (लोक) और शरीर (देव, मानव, तिर्यक शरीर) उत्पन्न किये।
उन से ही ऋतु, यज्ञ, पशु, छन्द, अन्न, मेघ, जाति, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, अग्नि, वायु, स्वर्ग, अंतरिक्ष आदि की उत्पत्ति हुई ।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।। ६ ।।
अर्थ :- जिस में सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञ से उस विराट् पुरुष ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये ।
इस मन्त्र में यज्ञ का यज्ञपति भी वही ब्रह्म बताया गया है ।
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